आदर्श मोमिन, आदर्श मुस्लिम
मुसलमान वह है जिसकी जबान और हाथ से दूसरे मुसलमान महफूज रहें। और मुहाजिर वह है जो अल्लाह की मनाकर्दा चीजों से रूक जाए।
आइये! जरा इस हदीस का तज्जिया करे, गौर करे यहां शब्द मुस्लिम से पहले “अल” है उससे यह मालूम होता है कि इससे मुराद वह मिसाली मोमिन हैं, जो अमन व तहफ्फुज की फिज़ा में इस कदर दाखिल हो चुके हैं कि वह अपने हाथों और जबान से किसी को तकलीफ नहीं पहुंचाते। यह सिर्फ इन मिसाली मुसलमानों की बात हो रही है, जो दूसरों के अजहान में अपना नक्श छोड़ जाते हैं। वह नहीं जो महज इस्लाम का दावा करें और उनकी पासपोर्ट पर मुस्लिम लिखा हो। यह मतलब हमें “अल” से पता चला जोकि ‘खुसूसियत’ पर दलालत करता है। इस की बुनियाद अरबी का मशहूर कायदा है “जब किसी चीज को बिललाम किया जाए तो इस चीज की सब से आला और अरफा हालत मुराद होती है” इसलिए जब हम “मोमिन” का शब्द सुनते हैं तो पहली चीज जो जहन में आती है, वह मोमिन को सब से मुकम्मल मानी होता है। इस हदीस से यही मुराद है।
इस तरह नहवी बातें खद से कोई नहीं सीखता, बल्कि उसके लिए बकायदा तालीम चाहिए। इस लिए आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) के लिए इस तरह का तजुर्बा मुम्किन न था, इसलिए कि वह उम्मी थे वह अपनी तरफ से नह बोलते थे उस्ताद अजल ने उनको जो सिखाया था वही बोलते थे। इस वजह से हमें पैगम्बर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) की अहादीस और अकवाल में इस तरह के बेशुमार कवायद नजर आते हैं, जिन के इस्तेमाल में कोई गलती नहीं है।
अब इस हदीस की तरफ लौटते हैं: असल मुसलमान वह है जिन पर ऐतबार और भरोसा किया जा सके, यहां तक कि दूसरे मुसलमान बिलाखौफ व खतर उनकी तरफ मुतवज्जा हो सकते हैं। इस तरह के मुस्लिम के ऐतबार पर बिलाखौफ व खतर अपना कुंबा भी छोड़ा जा सकता है, और इस के हाथ और जबान से कोई नुकसान भी नहीं पहुंचने वाला। अगर किसी को सच्चे मुसलमानों की सोहबत मयस्सर हो तो उसे ऐतबार होना चाहिए कि वह किसी के खिलाफ बात नहीं करेगा। न ही दूसरों के मुतअल्लिक कोई ऐसी चीज सुनने में आएगी। ऐसे मुसलमान दूसरों की इज्जत और इकराम में ऐसे ही हस्सास होते हैं, जितना अपनी इज्जत और इकराम के लिए होते हैं। वह खूद न खाकर दूसरों को खिलाते हैं। वह अपने लिए नहीं। दूसरों को जीना सिखाने के लिए जिंदा रहते हैं। वह अपनी रूहानी खुशी को भी दूसरों पर कुरबान कर देते हैं यह सारे मानी उस “अल” से ले रहा हूं, जो “हसर” पर भी दलालत करता है यानी एक खास मकसद पर रूक जाना या जब जाना।
तहफ्फुज और मुसलमान
लगवी लिहाज से “मुस्लिम” और “सलिमा” दोनों को मसदर “सिलम” है मुसलमान के लिए हर चीज सिलम (तहफ्फुज), सलामत (अमन) और मुसलमानियत के साथ पेश आती है। मुसलमान इस इलाही जज्ब से मामूर होता है कि उनका हर काम उस ताकतवर केन्द्र से जुड़ा हुआ होता है।
मुसलमान हरेक को सलामती के साथ आदाब अर्ज करते हैं, जिससे हर एक के दिल में उनकी इज्जत बढ़ती है। वह अपनी नमाजों को सलाम पर खत्म करते हैं। सब इंसान, जिन और दूसरे मखलूकात उनका सलाम वसूल करते हैं। इस तरह वह गैर मरई मखलूक से भी तबादला आदाब करते हैं। आज तक किसी ने अहसन दर्जा के आदाब किसी को नहीं दिये जैसे मुसलमानों ने दिये हैं। इस्लाम बुनियादी चीजों को दर्स देता है जिसे रोजा रखना, जकात देना, हज करना और इमान की उशाअत के लिए कोशिश करना। इस का मतलब यह हुआ कि वह इस हुक्म “इस्लाम में पूरे पूरे दाखिल हो जाओ” (कबरा:208) को पूरो करके, तहफ्फुज के लिए समंदर में जहाज पर बादबान लगा देते हैं जो लोग इस समंदर में गोता लगाते हैं वह हर हाल में तहफ्फुज और इस्लाम पाते हैं। इस तरह के लोगों में कोई अमल और रवैया अच्छाई के सिवा कुछ नहीं पाता।
सिर्फ हाथ और जबान का जिक्र क्यों?
हमारे आका (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) की मजकूरतुल सदर हदीस के हर बयान में एक एक शब्द चुन चुन कर मुंतखिब किया गया है। आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने सिर्फ जबान और हाथ का खास तौर पर इंतेखाब क्यों किया? इस खुसूसियात की कई वजूहात हो सकती हैं। इंसान दूसरे को दो तरह से इजा पहुंचा सकता है, बिलवास्ता या बिलमुशाफा, हाथ बिलमुशाफा नुकसान पहुंचाता है, और जबान जबान बिलवास्ता नुकसान पहुंचाती है। लोग दूसरो पर या तो बिलवास्ता यानी हसी तौर पर हमला करते हैं, या बिलवास्ता यानी गीबत करके, या बुराई करके हमलावर होते हैं सच्चे मुसलमान उन दोनो चीजों में मुलव्विस नहीं होते। इस लिए वह चाहे बिलमुशाफा काम कर रहे हों या बिलवास्ता हर हाल में इंसाफ और एतदाल के साथ रहते हैं।
आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने जबान का तजकिरा हाथ से पहले उस लिए किया कि इस्लाम में हाथ से पहुंचायी गयी इजा को जवाब दिया जा सकता है। लेकिन बिलवास्ता इजा, यानी गीबत और बोहतान वगैरह को जवाब देना हर जगह दुरूस्त नहीं होता। उस तरह के अमल से अफराद मुआशरों और कौमों के बीच तनाजियात खड़े हो सकते हैं। इस तरह की इजा से हाथ से पहुंचायी गयी इजा निस्बतन निपटना कदरे मुश्किल होता है। यही वजह है कि आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने जबान को हाथ से मुकद्दम जिक्र किया। दूसरे मुसलमान को कहा गया है कि अपने हाथ और जबान आने कंट्रोल में रखें।
इस्लाम का एक और अखलाकी पहलु यह भी कि मुसलमान को वह चीज जो हसी तौर पर या रूहानी तौर पर दूसरे के लिए नुकसानदह हो, उन्हें छोड़ देना चाहिए और उन्हें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि दूसरों को तकलीफ न पहुंचाये। नुकसान पहुंचाने को तो छोड़े मुसलमान मुआशरे के हर तबके को चाहिए कि तहफ्फुज और अमनों अमान का मजहर हो। मुसलमान इस वक्त तक सही मुसलमान नहीं हो सकते जब तक तहफ्फुज के एहसासात ले कर न चले और उनका दिल एतमाद के साथ न धड़के। वह चाहे जहां भी हों और रहें, इस्लाम से अख्जशुदा एहसान उन पर अयां होना चाहिए। वह जाते वक्त सलामती की दुआ दें, अपनी नमाजों में आदाब पेश करें, और नमाजों को एखतिताम करें तो दूसरे मुसलमान को सलाम पेश करें। किसी भी तौर यह बाद काबिले फहम नहीं है कि जो लोग सारी जिंदगी इस्लाम के इस दायरे में गुजारते हैं, कैसे उस राह पर चल सकते हैं जो अमन, एतमाद, बेहतरी और दुनियावी या गैर दुनियावी तहफ्फुज के इब्तेदायी उसूल के भी मुनाफी हो। और उससे वह अपने आप को भी और दूसरों को भी नुकसान पहुंचाये।
यहां मुनासिब होगा कि उन निकात की असल का एक बार फिर तज्जिया कर लिया जाए।
सच्चे मुसलमान आलमी अमन के सबसे ज्यादा काबिले एतबार नुमाइंदे होते हैं। वह हर जगह इस अजीम एहसास को ले कर चलते हैं जो उनकी रूह की गहराईयों तक पहुंचा हुआ होता है। तकलीफ और इजा पहुंचाने से हट के उन को हर जगह अमन और तहफ्फुज के निशान के तौर पर याद रखा जाता है। उनकी नजर में दूसरों के हुकूक की हसी (बिलमुशाफा) या जबानी (बिलवास्ता) खिलाफ वर्जी में कोई फर्क नहीं होता। बल्कि बसा औकात तो मौखरूलजिक्र को मकदमुलजिक्र से भी ज्यादा जुर्म समझा जाता है।
मिसाली नफूस और मोहब्बत के हीरो
जो लोग मोहब्बत से भरपूर है सिर्फ वही लोग खुशहाल और रौशन मुसतकबिल की बुनियाद बन सकते हैं। उनके लब मोहब्बत से तबस्सुम करते हैं। उनके दिल मोहब्बत से लबालब भरे होते हैं। उन की निगाहों से मोहब्बत और सब से नाजुक इंसानी एहसास फूटता है। यह मोहब्बत के ऐसे हीरो हैं जो सूरज के तुलू व गुरूब और सितारों की चमक से मोहब्बत का पैगाम वसूल करते हैं।
जो दुनिया की इसलाह चाहते हों, उन्हें पहले अपनी इसलाह करना होगा। अगर वह चाहते हैं कि लोग उनकी अच्छे मुआशरे को कायम करने में इक्तेदा करे तो उन्हें मन की नफरत, बुग्ज, हसद, दुनिया को सही करना होगा। और बैरूनी दुनिया को हर तरह की अच्छाई से तजईन करना होगा। उन लोगो के बयानात जो खुद तमुलकी और नजम व नसक से आरी हों और अपने एहसासास को दुरूस्त न करते हों, जाहिरन तो जाजिब और बसीरत अफरूज हो सकते है लेकिन इससे दुसरों को तलकीन नहीं होगी। और अगर तलकीन हो भी जाए तो उसके नतीजे में आने वाले एहसासात व जज्बात बहुत जल्द खत्म हो जाते हैं।
अच्छाई, खूबसूरती, सच्चाई और नेकोकारी दुनिया की माहियत में रची हुई है। कुछ भी हो जाए, दुनिया एक दिन इस माहियत को पा लेती है और कोई इस पाने उस को रोक भी नहीं सकता।
जो दूसरों को रौशन करने की कोशिश करते हैं जो दूसरों को खुशी के हुसूल में मदद देते हैं, उन्होंने मुहाफिज फरिश्तों की तरह अपने नफस को तरक्की दे कर लिया है। वह मुआशरे में आने वाली आफात में जद्दोजहद करते हैं और “तूफान” को मुकाबला करते हैं, वह आग बुझाने के लिए कोशिश करते है और हर तरह के मुतवक्के खतरात से निपटने के लिए हेमादम तैयार रहते हैं।
मोहब्बत के परस्तार
बदीउलजमा ने कहा है: हम मोहब्बत के परस्तार है, हमारे पास अदावत और मुखालिफत (दुश्मनी) को वक्त नहीं है”। यह हमारे लिए अहम तरीन उसूल है लेकिन सिर्फ काफी इतना कहना काफी नहीं। अहम मसला यह है कि इसकी सही नुमाइंदगी की जाए। दर हकीकत लोग इंसानियत से मोहब्बत के लिए बहुत से खूबसूरत वाक्य बोलते हैं और यह भी खूबसूरत वाक्य हैं मुझे ताज्जुब होता है कि ऐसे कितने लोग हैं जो इस तरह वाक्य बोलते है, लेकिन अपनी जिंदगी में अपने किरदार में अपने कहे हुए पर अमल भी करते हैं? मेरा ख्याल है इसका तसल्ली बख्श जवाब मिलना मुश्किल है।
अपने कौल की अमल से नुमाइंदगी करना हमारे पैगम्बर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) को एक खासा था। आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) जो कहते थे उस पर अमल करते थे और जो फरमाते थे उसे अपनी जिंदगी मे नाफिज भी करते थे। वह वाक्य जिन पर अमल नहीं किया जाए, चाहे वह कितने ही खूबसूरत और कामिल क्यों न हों, वह खत्म हो कर ज़ाये हो जाते हैं और गुजरते वक्त के साथ साथ उनका असर ज़ायल हो जाते है। दिलों पर वाक्य के असर से ही जाहिर होगा, चाहे वह इंसान के वाक्य हों या खुदा के, वह कितने मजबूत हैं और अगर उन पर अमल न किया जाए तो वह किस कदर बेहस हो जाते हैं कुरआन के एक अक्षर में भी तबदीली नहीं आयी और नुजूल के वक्त जो ताजगी और असलियत थी वह अभी तक कायम है। यह एक किताब रहमत व हिदायत लेकिन कमजोर इंसानी नुमाइंदगी और खला की वजह से पैदाशुदा धुंधली फिजा की वजह सही नजर नहीं आता। जिस की बिना पर लोग कुरआन के मुतअल्लिक बहकी बहकी बातें करते हैं। हालांकि उसमें कुरआन का कोई दोष नहीं है बल्कि उन मुआशरों को कुसूर हैं जिन्होंने उसे अपनी जिंदगी में न लाने का जुर्म किया है। मजहब और कुरआन जिंदगी के लिए अहम है और समझना हर की कुवत रखने के लिए बहुत जरूरी है। कुरआन की मुकम्मल नुमाइंदगी होनी चाहिए ताकि यह वह काम कर सके जिनकी उससे मुतवक्के है। अलमुखतसर मेरे कहने को मतलब यह है महज यह करना काफी नहीं कि हम मोहब्बत के तरस्तार और अमन के अलमबर्दार हैं। हमें बहुत सारी रूकावटे उबूर करनी है खुलासा यह है कि हसीन वाक्य को अमली जामा पहनाने की जरूरत है
मोहब्बत और शफकत इस्लाम के दा इंतेहायी जरीं उसूल है हमें पूरी दुनिया में उनकी नुमाइंदगी करनी चाहिए। ताहम माजी करीब के कुद मनफी वाकियात ने, बिलखुसूस, लोगों को इस्लाम के मुतअल्लिक बरअक्स सोचने पर मजबूर कर दिया है जो असल में इस्लाम में नहीं। कुछ लोगों की गल्तियों को इस्लाम के साथ जोड़ना बिल्कुल गलत है। यह सच है कि पड़ोस के मुल्क में अहम तबदीली हुई है और उससे आलम इस्लाम को सदीद नुकसान पहुंचा है लेकिन फिर भी बहुत से मसायल को मुफाहमत से हल किया जा सकता था। यह पहले इसलिए उन्हें नहीं हो सकता कि यह महज दावों के सिवा कुछ न था। यह वह अकेला मुल्क नहीं जिस ने आलम इस्लाम को गलत तसव्वुर को उजागर किया है। दुनिया में ऐसे मुमालिक और कायदीन मौजूद है जो अपने रवैयों और मालूमात से इस्लाम की गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं। जिस से सिर्फ कुरआन दुश्मनों को फायदा हो रहा है हमें अपने कौल पर जमे रहना चाहिए और हर अमल का पूरा जज्बा होना चाहिए। हमारे दिल में दुश्मनी के लिए बिल्कुल कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं रहे कि आने वाली सदी मोहब्बत और मुकालमा के परवान चढ़ने की सदी है। नफरतें खत्म होंगी और मोहब्बत और तहम्मुल हर तरफ फैलेगा। इसके इमकानात रौशन हैं इस लिए कि हम ग्लोबलाइजेशन देख रहे हैं। इंशाअल्लाह जब वक्त आयेगा तो मुकद्दस लोग इस काम को सर अंजाम देंगे।
हर दम हाय मोहब्बत
मोहब्बत के लोग जैसे रूमी, यसवी, और बदीउलजमा वगैरह को खुदा से रिश्ता हमसे ज्यादा मजबूत था इस लिए उनके नाकाम होने के इमकानात कम थे। इस लिए उन्होंने मोहब्बत, शफकत और तहम्मुल के सिलसिले में बे इंतेहा काम किए और अपने इर्द गिर्द लोगों को आमादा व मुतासिर किया। लेकिन अगर हम उनके दौर का आगाज से मवाजना करें तो आज उनके मुकाबले में जो हम ने देखा वह कुछ नहीं है। बदीउलजमा ने अपने इब्तेदायी दौर को इस तरह बयान किया है।
‘क्या वह समझते है कि मैं खूद गर्ज हों सिर्फ अपने फायदे की सोचता हूं? मुआशरे के इमान को बचाने के लिए मैंने सारी जिंदगी कुरबान कर दी है और आखिरत को कभी सोचा भी नहीं। अपनी 80 साला जिंदगी में मैंने दुनिया के कोई लज्जत हासिल नहीं की। मैंने अपनी जिंदगी मैदान जंग, मुल्क की जेलों, कैदो व बंद और अदालतों में गुजार दी है। उन्होंने मेरे साथ मुजरिमों जैसा सुलूक किया और कुरिया कुरिया फिराते रहे और मुसलमान निगरानी करते रहे। कोई ऐसी तोहमत नहीं जो मुझ पर न लगी हो। कोई ऐसा दबाव नहीं जो मुझ पर न डाला गया हो। लेकिन अगर मुझे पता होता कि मुआशरे को इमान महफूज है तो मुझे इस की परवाह न होती, चाहे मुझे जहन्नम की आग में भी जला दिया जाता। इस लिए कि जब उस हालात में मेरा जिस्म सोजां होता, लेकिन मेरा दिल तो गुलाबिस्तान की तरह दमक रहा होता” (बदीउलजमा सैयद नूरसी Tarince-i-Hayati, सवाने उमरी)
इन सब मुश्किलात के बावजूद मरदुम हाय मोहब्बत ने अपने दौर में वह कबूलियत नहीं देखी जो आज मुकालमा और तहम्मुल के नुमाइंदों को मिल रही है। उन के पैगाम ने अवाम पर वह असर नहीं डाला जो मुकालमा और तहम्मुल के नुमाइंदे डाल रहे हैं। मेरा ख्याल है कि अगर वह लोग इस सदी में जिंदा होते और मुकालमा और तहम्मुल की तरफ अवाम का रूझान देखते तो जरूर पूछते “तुम दुनिया भर में मुकालमा कराने में कामयाब कैसे हो गये। इसका क्या राज है”?
रौशनी के उन मिनारों के मुकद्दर में यह एजाज इसलिए नहीं था कि इस वक्त हालात साजगर न थे। इस एजाज को हासिल करने के लिए जरूरी है कि इस राह पर इस्तकबाल से रहा जाए। कल एक मशहूर बंदे ने मुझ से कहा “कल तक जो हल्के मुसलमानों की मुखालिफत कर रहे थे, आज उनकी मदद और तारीफ कर रहे हैं। यह इस्तेकलाल उन के एहसासात को मजहर है। इस को नजर अंदाज करना इंतिहायी न सुकरी होगा और उस को देख कर शुक्र बजा लाना एक तरह का कुफ्र होगा।
मोमिन बनने के लिए क्या चाहिए
आज सब चीजों से ज्यादा हमें एक नस्ल की जरूरत है जो खुदा के फरीजे को अदा करने के लिए पुर शौक हो और ऐसे मिसाली बंदो की जरूरत है जो मुआशरे की रहनुमायी कर सकें। हमें उन मिसाली राहनुमा की जरूरत है जो इंसानियत को शिर्क जिहालत जुल्म और तादी की लानत से छुटकारा दिला सके और इमान, बसीरत, मंजिले हक और अमन की तरफ रहनुमायी कर सके। हर मौका पर तनाव के कुछ अजहान ऐसे रहे हैं जो मजहबी, जहनी, समाजी, कस्बी और एखलाकी तनाव के दौरान लोगों की राहनुमायी करते रहे हैं। उन अजहान ने इंसानियत, कायनात, मौजूदाद और उसकी जामियत की तशरीह नौ की है। और यहां तक कि मौजूदात की पसमंजर और हमारे ख्यालात के तरीककार की दोबारा वजाहत की है। लोगों ने बारहा कफन से अपनी कमीस बनायी है। उन्होंने चीजों और मजाहिर कुदरत की कई बार तशरीह की है। उन्होंने किताब मौजूदात- जोकि तंगनजर जहन वाले अफराद के नजदीक अपना रंग और अपनी चमक खो चुकी है और हल्का रंग ले रही है। को गायकी के अंदाज में पढ़ा और उसे गहराई तक महसूस किया है। उन्होंने उसे एक नुमाइश की तरह देखा है। उन्होंने कायनात को मौसम ब मौसम और पैराग्राफ ब पैराग्राफ तज्जिया करके इस के कल्ब में छुपे सच को निकाला है।
उन अजीम लोगों की सब से नुमायां खूबी वह इमान और कोशिश हैं जो वह दूसरों को इमान को तज्जिया करने के लिए लगाते है। उस इमान और कोशिशों के साथ उनका यहीन है कि वह हर चीज को उबूर करके खुदा तक पहुंच जाएंगे और उन का यकीन है कि वह अमन लाएंगे। इस दुनियां को जन्नत नजीर बनायेंगें और अदन उनका मकाम बलंद कर देंगें।
हकीकत में इस निजाम की खुसूसियात या पेचीदगियां कितनी ही ज्यादा क्यों न हों, दुनिया का कोई दुनिया का कोई निजाम, तर्ज तदरीस या फलसफा ऐसा नहीं है कि उसने इंसानियत के इमान पर इतना मुसबत असर डाला हो। जब इमान अपनी शक्ल के साथ लोगों के कुलूब में दाखिल होता है। तो कायनात, मकासिद और खुदा के मुतअल्लिक लोगों के ख्यालात अक्सर बदल कर, इतने गहरे और उस्अत पजीर हो जाते हैं कि यह मौजूदा तज्जिया इस तरह करने लगते है गोया वह खुली किताब देख रहे हैं। जो कुछ यह लोग अपने इर्द गिर्द देखते थे, जो चीजें उनकी दिलचस्पी को मदउ नहीं करती है, जो चीजें बे मानी और बे हकीकत होती थी, वह अचानक बदल कर दोस्ताना और महबूबाना हो जाती हैं और गले लगाना शुरू हो जाती हैं। दिल को गरमाने वाली इस फिजा में लोगों को अपनी कदर का दर्जा पता चल जाता है। उन को महसूस होता है कि वह हर चीज के पर्दे के पीछे छुपे राज को पाने ही वाले थे। फिर वह इस सह जहती दुनिया की तंग कैद से आजाद हो जाते हैं और अपने आप को हिदायत के खुले मैदान में माने में पाते हैं।
दरअसल तमाम मुसलमान अपनी सनाख्त की गहराईयों में छुपे ख्यालात और अपने इमान के दर्जे के मुताबिक हदूद में लमहदूद हो जाते हैं। अगर वह जगह और वक्त की कैद में होते हैं लेकिन गैर ममनूआ मखलूक और खूबियों का मजमूआ बन जाती हैं। और ऐसी सतह तक पहुंच जाते है जो जगह की कैद से आजाद हो चुके होते है और जहां वह फरिश्तों के नगमे सुन सकते हैं। यह मखलूक जा पानी की तरह बे शक्ल गूदा मालूम होती है। जो कि अहम मखलूक है, लेकिन हकीकत में जो अजीम फायदा उसको हासिल होता है वह यह है कि उसकी इतनी अहमियत बढ़ जाती हैं कि जमीन उसके अंदर छुपे सांस (रूह) को दरयाफ्त करने का मचान बन जाता है। वह ऐसी मखलूक बन जाते हैं जो आसमान व जमीन के बीच समा न सके, ऐसी खलायी मखलूक जो शुमाल व जुनूब दोनों अकताब तक पहुंच जाए।
वह हमारे मध्य बैठते है, जहां हम कदम रखते हैं वह भी वहीं कदम रखते हैं। और दौरान नमाज सर रखते है जहां हमस रखते हैं, लेकिन वह अपने पाँव कि एक कदम हमेशा रहमत वाले एहसासात को तरक्की देकर और फैलाकर इंफेरादियत को उबूर कर जाते हैं। वह एक तरह से इज्तेमायी शख्सियत बन जाते हैं और तमाम मुसलमान को गले लगाते हैं। वह हर एक की तरफ अपना हाथ बढ़ाते हैं वह जन्नत की आवाज तकरीबन हर फ्रेकवंसी पर सन सकते हैं और महसूस करते हैं कि फरिश्तों के परों की आवाज भी सुन रहे हैं। वह खूबसूरत को वसी जश्न, रअद के डरा देने वाली बानों से लेकर परिंदो के खुशकुन नगमों तक, समंदर की हलाक करने वाली लहरों से लेकर, दरिया की मसहूरकुन आवाज तक जो खुलूद का एहसास दिलाती है, तंहाही की लकड़ियों के तिलस्माती इंकेसाफ से लेकर खौफ दिलाने वाली बलंदियों तक जो आसमानों को छूना चाहती हैं, सहर भरी हवाओं, जो सब्ज पहाड़ों को छूकर गुजरती है, से लेकर फूटने वाली खुशबू तक जो बागात से निकल कर हर तरफ फैल जाती है, देखते, सुनते और महसूस करते हैं। जो कहते हैं। “यही जिंदगी होगी” वह नमाजों के अंदर इस्मा हुस्नी को वर्द करते हुए अपनी सांसो को उसकी मुनासबत वक्अत देते हैं।
वह अपनी आँखों को खोलते और बंद करते हैं, उनकी जबीन नियाज हमेशा जमीन पर लगी रहती हैं जिसे कि वह दरवाजे की दहलीज पर सर रख उसके खेलने का इंतेजार कर रहे हों। वह दरवाजे की दुसरी सिम्त का इश्तियाक से इंतिजार करते हुए देखते हैं कि फिराक और इंतेजार खत्म होगा और अमन और कुरबत उन की रूह को मुकदस नक्श की तरह घेरेगी। वह अपनी रूहों के मिलने की ख्वाहिश में, सुकून ढूंढने की कोशिश करते हैं। वह कभी उड़ते हुए और कभी जमीन पर रेंगते हुए, हर चीज और हर शख्स के साथ खुदा की तरफ दौड़ लगाये रखते हैं। वह हर जगह में, दोबारा मिलन के साये में ‘शबे जफाफ’ख्3, के मजे लेते हैं। एक के बाद दूसरे लगी कई तरह की इंतेजार की आग बुझाते रहते हैं। और हर मोड़ पर एक नये शोले से आग पकड़ते हैं और जलना शुरू कर देते हैं। किसी को क्या पता कि कितनी बा रवह अपने आप को “खुदा की कुरबत” के सांस में घिरा पाते हैं, और कितनी बार उनका दिल तंहाई और उन लोगों के अलमिये के साथ जो उस रूहानी फैजान को महसूस नहीं करते, जख्मी होता होगा।
दरअसल वह शिर्क, जिस के साथ दुनिया लम्बे डग भरती है, इमान के यह आली हौसला हीरो अपने इमान के दर्जे तक, अपने रास्ते बनाते हैं जिसे वह जन्नत की वादियों के साथ घूम फिर रहे हों और इसके सिवा कोई सांस न ले रहे हों। दूसरी जानिब खुदा के साथ तअल्लुक की बुनियाद पर वह पूरी कायनात का मुकाबला कर सकते हैं। वह कोई भी मुश्किल पाट सकते हैं। अगर हर तरफ उन्हें तबाही और हलाकतें नजर आएं वह अंदूह में मुब्तिला नहीं होते चाहे उनके सामने दोजख भी आ जाए। वह हमेशा अपन सर बलंद रखते हैं और खुदा के सिवा किसी के सामने नहीं झुकते। वह किसी के आगे झुकते नहीं, न किसी से कुछ तवक्को रखते हैं। और न ही किसी से एहसान लेते हैं। जब वह फाते होते हैं और पैहम कामयाबियां हासिल करते है तो यह सोच कर खौफ से दहल जाते हैं कि असल में यह इस का खुदा के साथ वफादारी को इम्तिहान है ठीक उसी वक्त वह अजिजी से झुक जाते हैं और खुशियों के आँसू बहाते हैं उन्होंने नाकामियों पर अज्म मसमम के साथ सब्र करना भी सीखा है। वह इरादा को मजबूत करके दोबारा नया सफर शुरू करते हैं। किसी इंआम के मिलने पर वह मुतकब्बिर और न शुक्रे नहीं होते। और जब महरूमी आए तो रंज व अलम में भी मुबतिला नहीं होते।
लोगों के साथ मामलात में वह पैगम्बराना दिल रखते हैं वह हर एक को प्यार और गले लगाते है। वह दूसरों की गलतियों से सिर्फ नजर करते हैं लेकिन अपनी छोटी से छोटी गलती पर भी अपनी बाजपुरस करते हैं। वह दूसरों की गलतियों को न सिर्फ आम हालात में बल्कि शदीद गुस्से के आलम में भी मुआफ कर देते हैं। वह उन लोगों के साथ भी पुरअमन रहना जानते हैं जो बहुत ज्यादा गुस्सा वाले हों। इस्लाम अपने मानने वालों को जितना मुम्किन हो माफ करना सिखाता है। और यह भी कि मुसलमान नफरत, बुग्ज और इंतिकाम के जज्बात के गुलाम न बनें। वह लोग जो अपने आप को खुदा के रास्ते पर समझते हैं कभी नहीं हो सकता कि उस मजकूरा कैफियत से मुखतलिफ हों, किसी और तरह का रवैया अपनाना या सोचना बिल्कुल मुम्किन नहीं है। बल्कि इसके बरअक्स अपने सारे आमाल में वह दूसरों को खुश करने के जराय ढूँढते हैं। वह दूसरों का भला सोचते हैं और अपने दिलो में मोहब्बत को कायम रखने की कोशिश करते हैं। ताकि बुग्ज और नफरत के खिलाफ गैर मुतनाही जंग की जा सके। वह अपने गुनाहों की तपिश, अफसोस के साथ चलते हुए महसूस करते हैं और दिन में कुछ मरतबा अपने बुरे ख्यालात को गला घोंटते हैं। वह अपना काम दिलजमई से शुरू करते हैं और अच्छाई और खूबसूरती को हर तरफ फैलाने के लिए तुख्मरेजी की जमीन हमवार करते हैं। राबिया अदूविया के नक्शे कदम पर चलते हुए वह हर चीज को मीठी शरबत समझ कर कबूल करते हैं, चाहे वह जहर ही क्यों न हो। और अगर उनसे नफरत से मिला जाए वह तबस्सुम के साथ खुश आमदीद कहते हैं। और वह बड़े बड़े लश्करों को मोहब्बत के नाकाबिल शिकस्त हथियारों से हजीमत पहुंचाते हैं। खुदा उनसे प्यार करता है और वह खुदा से प्यार करते हैं वह हमेशा मोहब्बत की खुशी से मसरूर होते हैं और मोहब्बत किये जाने पर दरखशिंदा खुशियां महसूस करते हैं। उन के अजिज के पर हमेशा जमीन पर रहते हैं। और गुलाब के फूल पैदा करने की गर्ज से मिट्टी बनना भी गवारा कर लेते हैं। जिस तरह वह दूसरों की इज्जत करते हैं वह अपनी नफस का भी ख्याल रखते हैं। वह अपनी शामिलियत, मोहब्बत, शिराफत और अच्छाई को कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने देते। वह दूसरे लोगों की मलामत या बुरे अंदोजों को काबिलुलतफात नहीं समझते इस लिए वह इमान के मुताबिक जिंदगी गुजारते हैं। वह अपनी सोच के जाविये के नूर को जाये करने से बचाते हैं इस लिए कि उन्होंने अच्छा मोमिन बनना सीख लिया है।
खुदा के परस्तार नफूस
वह लोग जिन्होंने खुदा की रहमतो भरी रजा और उससे मोहब्बत करने और किए जाने के आईडियल्ज को एखतियार किया है, उनका सब से ज्यादा काबिल जिक्र खासा यह है कि वह किसी से मादी या रूहानी तवक्को नहीं रखते। नफा, दौलत, कीमत, राहत वगैरह जैसी चीज जिन के लिए दुनिया के लोग बहुत कुछ करते हैं, उन लोंगों के यहां न तो इतनी अहमियत व वक्अत हे और न ही उन चीजों को वह मेआर तसलीम करते हैं।
उन परस्तारों के लिए उनके आईडल्ज वक्अत ज़मीनी चीजों से ज्यादा होती है। इतनी ज्यादा कि उन लोगों अपनी चाहत यानी खुदा की रजा से हटा मुश्किल होता है। आरजी और मुंतकिल हो जाने वाली चीज से हट के यह परस्तार अपने दिल में खुदा की तरफ मुतवज्जा होने की ऐसी तबदीली पाते हैं कि उन्हें अपने आईडियल्ज के सिवा कोई मकसद ही नजर नहीं आता, इस लिए कि लोगों के खुदा से प्यार करने वाले और किये जाने के लिए वक्फ कर देते हैं, और अपनी जिंदगी दूसरों को रौशन करने में लगा देते हैं और चूंकि वह अपने मकसद को उसी एक तरफ मबजूल करा चुके होते हैं। जो एक तरह से उनके आईडियल्ज की तरफ ही पेश कदमी होती है। तो वह लोग तफरीक का बाअस बनने वाले और मुआंदाना ख्यालाता जैसे “वह लोग”, “हम लोग”, “दूसरों का” और “हमारा” से इजतेनाब करते हैं। उन लोगों को दूसरे से कोई मसला - जाहिरी या बातिनी - भी नहीं होता। उसके मुकाबिल उन के ख्यालात को महूर यह होता कि वह मुआशरे के लिए किसी तरह कारआमद बन सकते हैं और उस समाज, जिस के वह अजू हैं, से एखतिलाफ कैसे खत्म किए जा सकते हैं। जब वह मुआशरे में कोई मसला देखते हैं तो रूहानी कायद, न कि जंगजू की तरह, काम करते हैं कि दूसरों को किसी भी तरह के सियासी गल्बा या तर्ज हुकूमत से बचते हुए नेकी और पर शौकत रूहानी की तरफ ले जाया जाए। उन जान निसार लोगों की रूहों की गहराईयों में बाकी अवामिल के अलावा, इल्म को इस्तेमाल और अखलाकियात को सही और मुनासिब समझना और उस की जिंदगी के हर शोबे में नाफिज करना, वफाशआरी पर मंबनी नेकी और उससे अदम उनसूर को जानना होते हैं। वह लोग शहूत, मुफादात पर मंबनी सर्द परोपगेंडा और नुमाईश काम और आमाल जैसी चीजे, जो मुसतकबिल में यानी आखिरत में किसी तरह भी काम आने वाली नहीं होती, से खुदा की पनाह मांगते हैं। मजीद बरां अपने उसूल के मुताबिक रहते हुए वह अंथक कोशिश करते हैं कि उन लोगों की क्यादत करें जो आला इंसानी अकदार के एहतेराम को देखें या आगाज करे। ऐसा करते हुए यह लोग कभी भी, किसी से फायदा या नरमी के मुतमन्नी नहीं होते और मुकम्मल कोशिश करते हैं कि उसके मुकाबिल कोई जाती फायदा या मुनाफा वसूल न करें। वह उन चीजों से ऐसे बचते हैं जैसे सांप या बिच्छू से बचा जाता है। आखिरकार उनकी अंदरूनी इमारात के पास मरकज जो ताकत आ जाती हैं जो किसी किस्म की तसहीर, शेखी या तमतराकी से माने होती है। उन को मिलन सार रवैया जो कि उनकी रूहों का मजहर होता है। उस दर्जा का होता है कि वह दिलों को मोह लेना है और दानिशमंद लोगों का उन की इत्तेबा पर लगा देता हैं।
इस वजह से यह परस्तार कभी नहीं चाहते कि अपने आप को उछालें, तशहीर करें या अफवाह फैलायें। न ही उनकी ख्वाहिश होती है कि मशहूर हो या काबिले तारीफ हों। उसके मुकाबले में वह अपनी सारी ताकत और कुवत लगा कर कोशिश करते हैं कि रूहानी जिंदगी हासिल करें। वह अपने उन आमाल को खूलूस और खुदा की रजा के हुसूल की बुनियाद पर अंजाम देते हैं। दूसरों शब्दों में लफजों में वह चाहते हैं कि अमल में खुदा की रजा हासिल करे और अंथक कोशिश करते हैं कि अरफा मकसद हासिल करते हुए अपने पैगम्बराना जज्बा को दुनियावी तवक्कोआत, जज्बात और दूसरों की तरफ से मुशताकाना तारीफात से अपने आप को शामिल न करे। चूंकि आज इमान, इस्लाम और कुरआन पर तनकीद हो रही है और लोग मुखतलिफ तरह के सवालात कर रहे हैं, उन लोगों को चाहिए कि अपनी सानी तवानाई उन हमलों का जवाब देने में खर्च कर दें। जरूरी है कि अफराद को उन इस्लामी एहसासात और ख्यालात में मदद दी जाए और लोगों का बे मकसदियत से हटाकर आला आईडियल्ज की तरफ ले जाया जाए। इस जरूरत को पूरा करना उस हद तक कि लोग किसी चीज से ममनून न हों और किसी चीज की तमन्ना न करें, तभी मुम्किन है कि इमान को दिलों में एक बार फिर एक नये तरीके और अंदाज से ताजा कुवत बख्शी जाए। उसको यूं भी कहा जा सकता है। कि लोगों को रूहानी जिंदगी की तरफ दोबारा राहनुमायी की जाए। इस तरह की सोच इंतेहाई जरूरी है, खुसूसन आज के दौर में जबकि लोग समाजी जिंदगी में तबदीली और कल्ब हैयियत पर इंहेसार कर रहे हैं और उसे नयें अंदाज में शक्ल देने की कोशिश कर रहे हैं जब रूहानी जिंदगी की तरफ राहनुमायी की जाएगी तो इजमा, रजामंदी और तजामिन होगा, जब कि सिर्फ तबदीली की बात होगी तो एखतेलाफात, तकसीम और हत्ता कि लड़ाई भी हो सकती है। परस्तार कभी अपनी जिंदगी में खला या तौजीहात महसूस नहीं करते। शुक्र है वह उस मुत्तहदा राहनुमायी को समझते हैं। दूसरी तरफ वह तौजिया, साइंस और मनतक को बतौर खास इमान समझते हुए कबूल करते हैं। खुदा के करब - जो किसी की सलाहियतों पर मुंहसिर है और समंदरों में जो कि इलाही इत्तेहाद की तरह है मैं घुल कर उनकी जमीनी ख्वाहिशात और जिस्मानी लज्जते एक नया तरीका (खुदा की मर्जी से हासिल होने वाली रूहानी खुशी) नये अंदाज से पालते हैं।
सौ परस्तार अपनी रूहानी जिंदगी में खाकी लोगों से बात करते हैं, फरिश्तों की तरह सांस लेते हैं और दुनिया में अपनी जिंदगी की जायज जरूरतों को पूरा करते हैं। उस वजह से यह परस्तार हाल और मुसतकिल दोनों से मुतअल्लिक नजर आते हैं। उनका हाल जिंदगी से तअल्लुक उस हकीकत की वजह से है कि वह जिस्मानी कुवतों को लागू करते और पूरा करते हैं। और जो चीज उनको मुसतकिल से जोड़ती है वह है कि यह लोग हर मसले का अपनी रूहानी जिंदगी और दिल की रोशनी में तज्जिया करते हैं। जिंदगी की ख्वाहिशात को रोकने, जो रूहानी जिंदगी से मुम्किन होता है, से लाजिम नहीं आता कि दुनियावी जिदंगी को अकसर छोड़ दिया जाए। उस वजह से यह लोग मुकम्मल तौर पर इस दुनिया से अकसर नफरत नहीं करते। यह लोग दुनिया के किनारो पर खड़ा होने के बजाए उस के बीच में खड़े होकर हुकुमरानी करते हैं। लेकिन यह मौकिफ महज दुनियावी जिंदगी के लिए नहीं, बल्कि जिस्मानी ताकतों को काम में लाने और हर चीज को आखिरत से जोड़ने की कोशिश में होता है।
हकीकत में यही तरीका है कि जिस्म को अपने सांचे में और रूह को उसकी आफाक में रखा जाए। दिल और रूह की सरबराही में जिंदगी गुजारने का यही तरीका है। आरजी और चंद रोजा जिस्मानी जिंदगी सिर्फ इस हद तक होनी चाहिए। जितना जिस्मानी जरूरत हो। जबकि रूहानी जिंदगी जो अबदियत के लिए हमेशा खुली होती है, को हमेशा बे इंतेहायी तलब करना चाहिए। अगर कोई सिर्फ आला और खलाई ख्यालात सोचता है, अगर कोई मालिक की रजा के मुताबिक जिंदगी गुजारता है। अगर कोई दूसरों को रौशन करने के जिंदगी के बुनियादी उसूल समझता है। और अगर कोई हमेशा सिर्फ नुकता उरूज तलब करे तो फिर वह फितरी तौर पर अजीम प्रोग्राम पर अमल करने वाला बन जाता है। और फिर एक खास हद तक अपनी ख्वाहिशात और जज्बात पर काबू पा लेता है।
जाहिर है ऐसी जिंदगी गुजारना काफी मुश्किल है लेकिन फिर भी जिन लोगों ने अपने आप को खुदा के लिए वक्फ कर दिया है। उन के लिए यह मिशन पूरा करना आसान है। जो इस के नाम को बलंद करते हैं। उन लोगो के लिए जो खुदा के दरवाजे से सरगर्मी से मुआवजा तलब करते है। ताकि लोगों को पहुंचाया जा सके, जबकि उनका एक हाथ लोगों के दिलों के दरवाजों पर होता है और दूसरा खुदा के दरवाजे पर होता है। असल में उन लोगों के लिए जो अपनी आगोश में खालिक की गरमी को महसूस करते हों कोई मुश्किल मुश्किल नहीं होती। और जो अपने दिलों से मुआशरे तक कभी खौफ के साथ और कभी दोस्ताना मुहब्बत के साथ इमान दाखिल करने की कोशिश करते हैं। खुदा अपनी मेहरबानी उन पैगम्बराना कुलूब पर नाजिल फरमाता है, जो सब से पहले अपने निगाहें सिर्फ खुदा पर लगाते और उसी को सोचते हैं ताकि उस तक पहुंचने तक कोई लम्हा जाये किये बगैर उस पा सके। अपना मुकद्दस वजूद उनमें जाहिर करते हुए खुदा पर एक को याद दिहानी कराता है कि उन लोगों की कदर करें और खाकियों की उस वफादारी के एक छोटे से नमूने को एक बहुत बड़ी इलाही वफा के साथ बदला देता है। आगे खुदा की रहमतो के बहर बेकरां का एक कतरा बतौर नमूना पेश है।
“उन लोगों का न धुतकारो जो सुबह व शाम अपने रब को पुकारते हुए उसकी रजा के मतलाशी हैं? न उन्हें कोई आप के खाते से गर्ज है न ही आप को उन से कोई सरोकार होना चाहिए। (अलइंआमः52)
यहां जिन लोगों के मुतअल्लिक अल्लाह तआला ने मुहम्मद (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) को हिदायत की उन को “न धुतकारें” वह लोग है जो हुजूर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) से अकसर मिलते थे और जिन्होंने अपने आप को खुदा की रजा के लिए वक्फ कर दिया था।
अगर यह परस्तारी सदक दिल से और खुलूस के साथ हो तो बहुत ज्यादा इमकान है कि जितना ज्यादा यह लोक खुदा की रजा चाहते हैं खुदा उन पर उतनी ही ज्यादा नेमतें भेजेगा। और जितना सदक दिल से वह खुदा से जुड़ना चाहते हैं उतना ज्याद खुदा उन को कबूल करेगा और अजर देगा। और इतना ही ज्यादा इमकान है कि वह खुदा के साथ आला मुकालमात तक पहुंच जाएंगें
उन लोगों को हर ख्याल, वाक्य और अमल अगले जहांन में एक रौशन फिजा की शक्ल एखतियार कर लेगा। एक ऐसी फिजा जिसे किस्मत को मुस्कुराता चेहरा भी किया जा सकता है। यह खुश किस्मत लोग अपने बादजबां को अपनी किस्मत की चमकती हवाओं से भर लेते हैं किसी और चीज से दिल लगाये बगैर खुदा की तरफ खुसूसी रहमत के साथ रवाना होते हैं। कुरआन ने उस तरह के लोगों के मुतअल्लिक जो कुछ कहा है वह देखने के काबिल है।
यह ऐसे लोग है जिन को निजात और खरीद व फरोख्त खुदा की याद और नमाज और जकात से गाफिल नहीं करती, वह ऐसे दिन से डरते हैं जिस में दिल और आंखें पलट जायंगी, खुदा उनको उनके अच्छे आमाल को बदला देगा और उन पर अपनी रहमत बढ़ायेगा, इस लिए कि खुदा जिसे चाहता है बे हिसाब देता है। (अलनूरः37-38)
सारे गमो और मुसीबतों को भला को और खुदा के सामने सर तसलीम खम करके और हर तरह की मुश्किलात से जान छुड़ा कर उस किस्म की आजाद रूह को किसी और चीज के दरयाफ्त करने की जरूरत नहीं होती। इस तरह की कामयाबियों के मुकाबले में दुनिया की सारी नेमतें। जस्बे और खुशियां गंदे मेजों पर पड़ी खाली प्लेटों के सिवा कुछ मालूम नहीं होतीं। दुनिया और उसकी सानी चीजों के एतबार से वह खूबसूरती जिस की यह लोग अपनी रूहानी दुनिया में आरजू करते हैं, वह समझ से बालातर है। इस से बढ़ कर बहार में जो कुछ चमकता है और उगता है और गरमा में जो जर्द पड़ता है, यह सब उस तरह हो जाता है जिसे उन दोनों में कोई फर्क नहीं है। इस हकीकत को जानते हुए अबद से ममासिल अरवाह हो उस चीज को बे वक्अत समझती हैं जो अबदी अज्जा पर मुस्तिमिल न हो और अपने दिल के रास्ते के साथ चलते हुए अंगूरों के और दूसरे बागात तक पहुंच जाते हैं और उस मध्य अपने दिल को किसी भी तरह दुनियावी या फानी चीजो में नही लगाते।
- Created on .