लक्ष्य और साधनों की स्पष्टता
हमें किसी भी प्रारंभ किए हुए कार्य के उद्देश्य और लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए। यदि ऐसा करेंगे तो हम अपने उद्देश्य से कभी नहीं भटकेंगे। यदि हम अपनी आत्मा को निश्चित लक्ष्य की ओर निर्देशित नहीं करते तो हमारे विचार भ्रम के भंवर में फंसकर नष्ट हो जाएंगे और शक्तिहीन खिलौने बनकर रह जाएंगे।
हमारा उद्देश्य हमारे स्पष्ट विचारों का परिणाम होना चाहिए। यदि हम विचारों के बाढ़ में खोना नहीं चाहते हैं तो वास्तव में हमें अपना उद्देश्य स्पष्ट रखना चाहिए। बहुत से महत्वाकांक्षी और साहसिक कार्य फलदायक नहीं होते या उनका कोई लाभदायक परिणाम नहीं होता और निश्चय ही अपने पीछे गहरा वैमनस्य और द्विवेष छोड़ जाते हैं क्योंकि उनके लक्ष्य और साधन स्पष्ट नहीं होते।
किसी भी कार्य को करने के क्षेत्र में सृजनकर्ता की सहमति को प्राथमिकता देना पहली आवश्यकता हैं यदि ऐसा नहीं किया गया तो ईश्वर के नाम पर उसमें हस्तक्षेप करने से झूठ स्वयं को सत्य की तरह प्रस्तुत करेगा और मन तरंगे स्वयं को वास्तविक विचार की तरह दर्शाती हैं। यद्यपि यह कार्य आस्था और विश्वास के लिए संघर्ष के नाम पर किया जा रहा है, ऐसी गलती या भ्रम बहुत सारी बुराईयों और अपराधों को जन्म देती है।
कोई भी कार्य को करने के क्षेत्र में सृजनकर्ता की सहमति को प्राथमिकता देना पहली आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो ईश्वर के नाम पर उसमें हस्तक्षेप करने से झूठ स्वयं को सत्य की तरह प्रस्तुत करेगा और मन की तरंगे स्वयं को वास्तविक विचार की तरह दर्शाती हैं। यद्यपि यह कार्य आस्था और विश्वास के लिए संघर्ष के नाम पर किया जा रहा है, ऐसी गलती या भ्रम बहुत सारी बुराईयों और अपराधों को जन्म देती हैं।
कोई भी कार्य उस सर्वशक्तिमान की आज्ञा और सहमति से किए जाते हैं तोः एक अणु सूर्य के बराबर, एक बूंद समुद्र के बराबर और एक क्षण भी शाश्वतत्व के बराबर महत्व रखता है। इसी लिए यदि बिना उसके सहमति के संसार को स्वर्ग के बागीचे में परिवर्तित कर भी दिया जाए तो भी अंतिम परिणाम पूर्णतः महत्वहीन होगा। इससे भी अधिक, जो भी इसके लिए जिम्मेदार है उनसे इसका उत्तर मांगा जाएगा। इसलिए अंत साधनों को उचित नहीं ठहराता।
इच्छित उद्देश्य को समझने की योग्यता और उसे आसानी से पूरा करने में साधनों का महत्व हैं इसलिए ऐसे साधन जो उद्देश्यों को पूरा नहीं करते, खासकर वो जो ऐसी उन्नति में बाधक होते हैं, अभिशापित समझे जाते हैं। इसी तर्क के आधार पर संसार स्त्रियों और पुरूषों के बीच और जीवन में उनके वास्तविक उद्देश्य में हस्तक्षेप करता है, लेकिन उस सृजनहार के हजारों भव्य नामों को दर्शाने और उसके भव्य कार्यों को प्रदर्शित करने के लिए उसे प्रसंशा और प्रेम मिलता हैं
सत्य को कई तरीकों से स्थापित और समर्थित किया जा सकता है। ऐसे मार्गो का महत्व इसमें है कि ईश्वर, जो सत्य है, के लिए हमारे मन में सम्मान को वे कितना बढ़ाते हैं, और क्या सही और सत्य है उस पर विचार करने को प्रेरित करता हैं यदि माता-पिता अपने बच्चों को सही शिक्षा दे रहे हैं, यदि पूजास्थल अपने समुदाय में शाश्वतत्व के विचारों को जागृत कर रहा है तो हम कह सकते हैं कि वे अपना उद्देश्य पूरा कर रह है और इसलिए वे पवित्र है। यदि ऐसा नहीं है तो वे उन उपद्रवी फंदों की तरह है जो हमें सत्य से विचलित करते हैं। हम इन्हीं मानदण्डों को संगठनों, ट्रस्टों, राजनैतिक संस्थानों और समाज में सामान्य रूप से लागू कर सकते हैं।
संस्थानों के संस्थापको और अध्यक्षों को ये सदा याद रखना चाहिए कि इन संस्थानों की स्थापना क्यों हुई है, इससे उनके कार्य अपने उद्देश्य से नहीं भटकेंगे और फलदायी होंगे। यदि वे ऐसा नहीं करते तो वे घर, सराय, विद्यालय और अन्य संस्थानों की स्थापना के उद्देश्य को भूलने लगते है और प्रतिकूल दिशा में कार्य करना आरंभ कर देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपने जीवन का उद्देश्य भूल जाता है।
अच्छे विचारों पर एकाधिकार का दावा करना और केवल अपने पक्ष को सही ठहराना भौतिक कारणत्व पर निर्भरता और उद्देश्य के प्रति अज्ञानता का प्रतीक हैं पूर्ण विश्वास, भावनाएं और विचार रखने वालों से द्वेष और घृणा की भावना रखना-क्या यह अंतिम उद्देश्य के पर्याप्त प्रतिबद्धता की कमी नहीं है? हाय वे स्वदासता में जकड़े निकृष्ट लोग जो एक बार ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि वे अपने क्षयग्रस्त तर्क के अनुसार ब्रह्माण्ड को संचालित कर सकते हैं।
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