इस्लाम की सेवा में नेकी एवं मुसीबतें
3.1 मितव्ययता को कैसे परिभाषित किया जा सकता है?
मितव्ययता अतिरेक के बीच एक संतुलित रास्ता है, यानि दो प्रकार के अतिरेकों के बीच का एक माध्यम मार्ग है। इफरात और अधिकता और तफरीत अर्थात अल्पता, इसे दो खानों में बांट कर देखा जाता है। यह इंसान की मौलिक प्रकृति, सामर्थ्य एवं उसकी योग्यता का तकाजा है कि वह अच्छा काम करे और उसी प्रकार उसे अंजाम दे जिस प्रकार अल्लाह ने उसे भावनाएं खौफ, गुस्सा और शारीरिक इच्छाएं और इस प्रकार की और सारी चीजें ये सब उसके अंदर जन्मजात गुण के तौर पर मौजूद हैं और उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अगर इन गुणों का अच्छी तरह इस्तेमाल किया जाए जैसा कि उन्हें इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है तो फिर मितव्यता को उसने प्राप्त कर लिया। उसके दूसरी ओर, अगर उसका भलीभांति इस्तेमाल न किया जाए या उसका अधिक इस्तेमाल किया जाए तो यह भटकाव कहा जाएगा।
उदाहरण के तौर पर इंसान की शारीरिक इच्छांए, सामान्य अर्थ में, वह इच्ठाएं हैं जिसकी पूर्ति करके इंसान जिंदा रहता है और अपनी आने वाली नस्लों को आगे ले जाने में सक्षम होता है। खाना, पीना, और इस प्रकार के दूसरे काम यह भी शारीरिक इच्छाओं के अंतर्गत ही आंएगे, जिससे इंसान अपनी सेहत एवं शारीरिक वजूद बनाए को बनाए रखता है। ऐसी इच्छाओं से पूर्ण रूप से बिल्कुल किनारा कर लेना जैसा कि कुछ ईसाई ननें और भिक्षू करते हैं ताकि वह अपनी अच्छी की पूर्णता को प्राप्त कर सकें यह इफरीत की श्रेणी में आएगा। यह एक प्रकार से किसी चीज का अधिकता से इस्तेमाल करना है यानि किसी चीज को छोड़ने में और उससे रूकने में अतिरेक का इस्तेमाल करना। उसके दूसरी ओर, किसी सीमा को न मानना और हर चीज को इस्तेमाल योग्य समझना यह तफरीत की श्रेणी में आएगा और यह भी एक प्रकार से अधिकता है और अहंकारी अनुग्रहशीलता है। इन दोनों के बीच का जो उचित रास्ता है वह स्वअनुशासन।
इंसान के अंदर क्रोध की भावना का मौजूद होना भी एक प्रकार से नेमत है जिसका वह उचित कारणों से इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन इसको इस्तेमाल करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे कितना गुस्सा करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, मामूली से मामूली बात पर गुस्सा होकर किसी का खून बहाना या इफरीत की श्रेणी में आएगा। उसके दूसरी ओर, अगर किसी की इज्जत से खिलवाड़ किया जा रहा हो या उसके किसी पाक चीज का मजाक उड़ाया जा रहा हो और उस पर वह खामोशी अख्तियार करे तो यह तफरीत कहलाएगा और इन दोनों के बीच है वह मितव्ययता। किसी जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना और उसके आगे अडिग रहना और हिम्मत न हारना लेकिन वहीं कमजोरों के प्रति उदार होना और उनसे हमदर्दी करना और फिर किसी-किसी प्रतिकूल हालत में सब्र से काम लेना अगर उससे बेहतर नतीजे की उम्मीद हो तो यह भी मध्यममार्गी तरीका कहलाएगा।
किसी भी चीज को लेकर हद से ज्यादा चिंता करना, आधारहीन खौफ में मुब्तेला होना और हर चीज से डरना यानि संभावित दुर्घटना से, बिजली की कड़क से, अंधविश्वास से या दुनिया में ऐसी किसी और चीज से यह सब इफरीत कहलाएगा। गंगा के किनारे ऐसे हजारों लोग मिल जाएंगे जो हर चीज को खुद का दर्जा देने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं और देवी देवताओं से मुसीबत के वक्त मदद की मांग करते हैं जबकि वह स्वयं इस लायक नहीं हैं कि वह अपनी मदद आप कर सकें। फिर भी, खौफ से पूरी तरह आजाद हो जाना और किसी चीज के बारे में न संजीदा होना और न चिंता करना चाहे वह चीज जमीन पर मौजूद हो या आसमानों में, जबकि सामान्य रूप से उम्मीद की जाती हो कि उसको लेकर डरा जाए या चिंता की जाए तो यह तफरीत कहलाएगा। यह एक प्रकार से पागलपन हुआ जिसमें इंसान अपना नुकसान आप करता है और जो दूसरे लोग उनके करीब हैं उनकी जिंदगियों को खतरे में डालना है। मध्यम मार्ग यह है कि इंसान न केवल अपनी आप रक्षा करे बल्कि जो लोग उनके आस पास रहते हैं उनके बचाव की भी कोशिश करे और हद से ज्यादा किसी चीज को लेकर चिंतित न हो और जिन संभावित चीजों के बारे में उसे पता न हो उसको लेकर परेशान हो।
यह शब्द इफरात, तफरीत और मध्यम मार्ग कारण पर भी लागू होता है। बिना यह ध्यान दिए कि आपके अवलोकन और समझ का नतीजा क्या सामने आएगा केवल तर्क पर निर्भर होना या इफरात कहलाएगा। प्राचीन काल के तर्कशास्त्री अपनी समझ को लेकर ऐसा ही किया करते थे या फिर आज के भौतिकवादी भी अपने तर्क में यही बात करते हैं। तर्क को सिरे से खारिज कर देना और दिमाग की सारी प्रक्रियाओं को नकार देना और केवल बाह्य निश्चयात्मकता पर निर्भर करना या केवल अपने अंतर्मन की बात सुनना और केवल व्यक्तिपरक चेतना को सच मान लेना ये सब इफरीत कहलाते हैं। इसका एक उदाहरण कौमटे की निश्चायात्मकता है और ईसाई धर्म में इस्तेमाल होने वाला कुछ निश्चित प्रकार का का रहस्यावाद है। तर्क एवं विचार में मध्यम मार्ग को अपनाना एक नए विचार की ओर ले जाता है जिसमें व्यक्तिपरक अवलोकन और एहसास को प्रमुखता दी जाती है। इस प्रकार से कोई इंसान इस बात को समझ सकता है। कि उसके अपने अंतर्मन या अवलोकन की सीमाओं के अंदर कौन सी चीज नहीं आ सकती। दिमाग को उचित प्रकार से तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब आप अल्लाह के बताए हुक्मों का पालन करें और उसकी पाक किताब कुरआन का अनुसरण करें। नहीं तो इंसान का दिमाग केवल अपने द्वारा गढ़ी गढ़ाई बातों पर चलता है और उस पर उसका अहंकार हावी रहता है।
मध्यम मार्ग जैसा कि मैने कहा, वह हर प्रकार के काम के लिए आवश्यक है और जो हमारी क्षमताएं एवं इंद्रीयबोध है उसके सही इस्तेमाल के लिए जरूरी हैं। वही बात उन चीजों पर भी लागू होती है यानि जो हमें दायित्व और जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं और ईमान की पुख्तगी के मामले में भी। अल्लाह में यकीन न करना और उसके गुणों को इंकार करना नास्तिकता है। दूसरी ओर यह मानना कि ईश्वर भी भौतिक रूप में मौजूद है और उसके साथ किसी स्थान या इंसानी गुण को जोड़ना यह अविश्वास कहलाएगा। इन दो अतिरेकों के बीच का जो मध्यम माग्र है कि इंसान अल्लाह के होने में यकीन तो करे मगर यह भी स्वीकार करे कि वह हर प्रकार की कमियों से पाक है, वह अकेला है और वह सब चीजों का पैदा करने वाला है। उसको किसी चीज की आवश्यकता नहीं है और उसके गुण पूर्ण रूप से उत्तम एवं दिव्य हैं।
ईमान और विश्वास के साथ सारी दूसरी चीजों को भी इसी प्रकार जोड़ कर देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, यह विश्वास करना कि इंसान की कोई इच्छा नहीं है और न उसकी कोई शक्ति है वह एक प्रकार से भाग्य को एक मजबूरी मान लेना है। यह यकीन करना कि इंसान हर चीज का करने वाला और बनाने वाला है यह जाए कि इंसान को आजाद इच्छा दी गई है ओर केवल अल्लाह ही चीजों को पैदा करने वाला है। मध्यम मार्ग पर चलना वास्तव में बेहतरीन कार्य या अमल है। अगर हमारा नफ़्स और दैहिक जीवन इस दुनिया में हमें यह भूलने के लिए मजबूर कर देता है कि हम आध्यात्मिकता एवं कयामत को भुला बैठें और उस पर ध्यान न दें तो यह भौतिकवाद है और यह इफरात कहलाएगा। रहस्यवाद में डूबा हुआ आध्यात्म जो पूरी तरह दैहिक इच्छाओं को नकारता हो यह तफरीत कहलाएगा। इन दोनों के बीच का संतुलित मार्ग यह होगा कि इंसान अपने शरीर और आत्मा की जरूरतों का ध्यान रखें, इस दुनिया और मौत के बाद की दुनिया के बीच संतुलन कायम रखे। इस प्रकार का ईमान ही असली ईमान माना जाएगा और यह एक प्रकार से स्वनिग्रह कहलाएगा।
इस बहस की रौशनी में, कुछ धर्म दोनों रूपों से अपनी अधिकताओं का उदाहरण पेश करते हैं। मजहब में किसी भी कत्ल की सजा उचित रूप से केवल यह हो सकती है कि कातिल का भी कत्ल किया जाए और उसे यूं ही न छोड़ दिया जाए। जबकि दूसरे धर्म न तो कातिल पर लगाम लगाने की बात करेंगे और केवल उसको माफ करके ही इंसाफ के तकाजे को पूरी करने की बात करेंगे और उसके अलावा कुछ नहीं करना चाहेंगे। इस्लाम बीच का रास्ता अख्तियार करने की बात करता है और इस सिद्धांत पर अमल करने को कहता है कि जिसके साथ जिस प्रकार का बर्ताव किया जाए उसी के अनुरूप उसे सजा दी जाए लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि सजा देने वाला चाहे तो उसे कभी भी माफ कर सकता है। अगर हम जिंदगी के किसी भी पहलू पर नजर डालते हैं, चाहे वह सेद्धांतिक हो या व्यावहारिक, हम साफ तौर पर देखेंगे कि इस्लाम हर मामले में बीच का रास्ता अख्तियार करने का हुक्म देता है।
सामाजिक अनुग्रह हर उस इंसान को सोचने के लिए मजबूर कर देगा जो समाज के बंधन से अपने को बंधा हुआ महसूस करता है और उसे उस समय तक प्राप्त नहीं किया जा सकता जब तक कि उस समाज का सदस्य अपनी सोच में, व्यावहारिक जीवन में और अपने आर्थिक मामलों में एक खास प्रकार की पारदर्शिता न बरते। उनके तरीके का यह सीधापन उस समय तक बाकी नहीं रखा जा सकता जब तक कि समाज के अधिकतर लोग मध्य मार्गी होने के फायदों को समझने न लगें और उस पर अमल न करने लगें।
3.2 इंसान को गुनाहों, भटकावों और प्रलोभनों से किस प्रकार बचना चाहिए?
इस सवाल का संबंध आज आधुनिक जिंदगी की कुछ बड़ी कठिनाईयों से है। जो लोग अभी पूरी तरह जवान नहीं हुए हैं, लेकिन मेरा इशारा निस्संदेह उन नौजवानों की ओर है जो समाज का हिस्सा हैं और अपने ऊपर पड़ने वाले दबावों का जिक्र काफी बढ़ा-बढ़ा कर करते हैं; यहां तक कि हद से बढ़ा हुआ लाचल और आती-जाती इच्छाएं उनकी नेक भावनाओं और महत्वकांक्षी अरमानों को छिन्न भिन्न कर देती है। ऐसे माहौल में वास्तव में किसी इंसान के बेहतरीन गुणों को पेश हमें देखने को मिलता है और जिनकी यह बड़ी समय में रहना और इस प्रकार की इच्छाओं और लालसाओं से लड़ने में अपनी ही तरह की भलाईयां पोशीदा हैं। क्योंकि किसी भी तकलीफ का इनाम उसी ऐतबार से दिया जाता है जिस प्रकार की वह तकलीफ होती है।
यह केवल तकलीफें नहीं थीं जिसे हजरत हमजा ने उठाई थीं और जिसकी बदौलत उन्हें शहीदों के अमीर को खिताब मिला था या फिर शेरे-खुदा का खिताब। युद्धभूमि में अपने साथियों के बीच उनकी आवाज होती थी, “भले ही दुश्मन हजरों में हों गमर हमारे पास हमारा ईमान है।” फिर दुश्मनों पर इस प्रकार हमलावर होते थे कि उन्हें अपनी मौत का खयाल तक न होता था। यही वे खूबियां थीं जिसकी बदौलत उन्हें इतना ऊँचा मुक़ाम हासिल हुआ।
जब इस्लाम की पहली बार शिक्षा दी गई, तो काफिरों की औरतें खाने-काबा का तवाफ अर्थात उसके इर्द-गिर्द नंगे होकर घूमा करती थीं। व्यभिचार, परायी औरतों से रिश्ता, दूसरे का माल हड़प् लेना, बेजा लाभ अर्जित करना, शोषण, घूसखोरी, शराब नोशी और जुआ समाज की अहम बुराईयां मानी जाती थीं। फिर भी मुसलमानों ने उन सब चीजों से अपना रिश्ता तोड़ कर इस्लाह को कबूल किया। वे लोग भी आम इंसानो की तरह ही एक इंसान थे जिनकी अपनी इच्छाएं एवं अभिलाषाएं होती हैं। लेकिन इन चीजों से पूरी तरह तौबा कर लेना, समाज में जो अनैतिक काम थे उससे पूर्ण रूप से अपना रिश्ता तोड़ लेना, शुद्ध एवं सदाचार जीवन का अपनाना, अल्लाह के सच्चे दीन और उसके पैगम्बर की मदद करना, ऐसी सारी परेशानियों, कठिनाईयों एवं प्रतिकूल वातावरण के बावजूद करना, यही वे गुण थे जिसने उन्हें महान लोगों की सूची में शामिल कर दिया। ऐसा करके उन्होंने जिस नेकी को प्रदर्शित किया उसकी बिना पर वह दूसरों के लिए रौशनी बन गए और उनकी हैसियत आसमान में सितारों की मानिंद हो गई और जो लोग उसके बाद आए इस दुनिया में उन्हें उचित मार्गदर्शन कर सके।
जिस प्रकार की परेशानियां, तकलीफें और रूकावटें उन लोगों ने बर्दाश्त की वैसी ही परेशानियां, तकलीफें और रूकावटें आज भी किसी न किसी सूरत में मौजूद हैं। एक आध्यात्मिक सभा में, बदीउज्जमां सईद नुर्सी को ऐसे समय की शख्सियत से ताबीर किया गया जिस समय मुसीबत और तकलीफें थी।1 अगर अल्लाह के नबी उल प्रतिकूल माहौल में इस्लाम की खिदमत करने वाले चंद लोगों का नाम लेते तो वह जरूर उन लोगों का नाम लेते जो हर रूकावटों और तकलीफों के बावजूद अपने दीन की खिदमत में लगे रहते हैं। अगर गली कूचे, बाजार, सिटी सेंटर्स, सामाजिक एवं आर्थिक व्यापार, व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन, स्कूल (जो सारी दूसरी चीजों को परवान चढ़ाने का काम करते हैं) टार सारी दूसरी सामाजिक पहचान और इदारे जो सब मिल कर एक सामूहिक जीवन की बुनियाद डालते हैं और उसके तौर तरीके- अगर इन सब चीजों को एक-एक करके तौला-परखा जाए तो उन सब के बारे में जो फैसले आंएगे वे ये कि “ये सब बुरे, बिगड़े हुए और उजड़े हुए लोग थे।”
आप जहां कहीं भी जाएं आपको किसी न किसी प्रकार की कमजोरी और गुनाह देखने को मिलेगा जो आपके हवास पर हावी होने के लिए बेताब नजर आते हैं; माहौल पूरी तरह आक्रामक दिखाई देता है। किसी समुदाय में किसी काम को अंजाम देना या उसे अंतिम परिणति तक पहुंचाने के लिए ऐसा नहीं हो सकता कि आपकी रूह और दिल जख्मी न हों और आपके आध्यात्मिक जीवन में हलचल न पैदा हो। इस्लाम पर चलना उतना ही मुश्किल है जितने कि अग्नि मार्ग पर चलना या फिर गंदे खून से लबालब नदी को पार करना। हम लोग इसी तबाही और मुसीबत की दौर की पैदावार हैं। इंसान के अंदर उसकी इच्छाएं, कामनाएं छुपी हुई हैं वह बिच्छु के दुम के समान है जो किसी भी समय आप पर हमला करने के लिए तैयार दिखाई देती है। उसकी इच्छाएं और कामनाएं अक्सर आज के आधुनिक समाज में जो चीजें मौजूद हैं और व्याप्त हैं उसके आधार पर पूरी की जाती हैं। यह संभव है कि किसी समय भी बिच्छु रूपी यह दंश आपको अपना निशाना बना ले। हमें अवश्य ही इन हालात के प्रति सचेत रहना चाहिए और इस रौशनी में उसका मूल्यांकन करना चाहिए कि जिस प्रकार की मुसीबत आप उठाएंगे उसी प्रकार से आपको इनामात से नवाजा जाएगा। इसलिए जो मुसीबत आप भुगतें उसके मुकाबले में जितने इनाम से आपको नवाजा जाएगा उसको लेकर अपने को बेहतर महसूस करें। हम अपने दुश्मन को हराने में जितने ही कामयाब होंगे तो हमें उतना ही बेहतर इनाम से नवाजा जाएगा। अगर अल्लाह के रसूल के साथियों ने बेपनाह मुसीबतों और परेशानियों को झेलने के बाद उच्च पदों (आध्यात्मि एवं सांसारिक) पर आसीन हुए तो आज का इंसान भी ऐसा करके उसी मुकाम को हासिल कर सकता है और अल्लाह से ऐसी ही रहमत की उम्मीद भी की जाती है आज जबकि किसी गुनाह के काम को करना बेहद आसान हो गया है तो अवश्य ही हमारी अपनी कुछ कोताहियां ओर कमियां होंगी जिसकी बदौलत हमने उन गुनाह के कामों को किया होगा। लेकिन यह हमें आह्वान करता है कि हमें चाहिए कि हम अल्लाह की रहमत से मायूस न हुआ करें; बल्कि हमें साहस और हौसले से काम लेना चाहिए। आपको मैं अपने बचपन की एक घटना बताता हूं जो आपको यह बताएगा कि मैं क्या सोचता हूं और महसूस करता हूं। जब हम छोटे थे तो हमारे पास एक बेहद वफादार कुत्ता था जो हमारी भेड़ के रेवड़ की कड़ी चौकसी किया करता था। मैं उसकी वफादारी को इतना पसंद करता था कि मैं स्वयं उसे अक्सर खिलाया पिलाया करता था और कभी कभी उसके साथ खेलता भी था। जब मैंने इबादत के लिए हाथ ऊपर उठाया, तो मैंने उस कुत्ते की वफादारी के महत्व को समझते हुए इस प्रकार अल्लाह से दुआ की, “या मेरे अल्लाह, जिस प्रकार मैंने इस कुत्ते की वफादारी की बिना पर इसके साथ एक दोस्त सा बर्ताव किया, आपका यह बंदा जो आपके दर से कभी नहीं हटा और जिसने कभी किसी और के आगे सर नहीं झुकाया और न कुछ मांगा उसे अपनी रहमत इनायत फरमाईए।”
यही बात हर सच्चे मुसलमान पर भी लागू होती है (जिसने कभी अल्लाह से मुंह नहीं मोड़ा और हमेशा उसकी रहमत और मदद का तलबगार रहा और जिसने केवल उसी की इबादत की और जो कुछ मांगा बस उसी से मांगा किसी और से नहीं) कुछ गलतियों, कोताहियों एवं कमजोरियों के बावजूद, ऐसे लोग भी हैं जो अल्लाह से उसकी रहमत तलब करते हैं और पूरी ईमानदारी और लगन से उसकी राह में कोशिशें करते हैं तो उन्हें उसकी रहमत से दूर नहीं किया जाता। हम अपनी कोताहियों एवं कमियों को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार की स्वीकारोक्ति, अपनी गलती को मान लेना उनकी उस यात्रा का हिस्सा हैं जिसमें पश्चाताप और अफसोस सब कुछ शामिल है हम उसकी रहमत की बदौलत अक्सर गुनाह करते हैं और फिर भी उससे रहमत की उम्मीद रखते हैं और यही उसकी शान के मुताबिक भी है। अल्लाह भी इस प्रकार पूरी ईमानदारी और लगन से मांगी गई दुआ को नजरंदाज नहीं करता।
हमने अब तक जो कुछ कहा है उन हालात को सामने रख कर कहा है जो हमारे सामने है। आईऐ हम अब संक्षिप्त तौर पर उन कुछ बिंदुओं पर नजर डालते हैं जिसमें यह बताया गया है कि हमें क्या करना चाहिए और किस प्रकार करना चाहिए। ?
[ I ]
किसी भी फिसलन भरे रास्ते पर इंसान बेहद संभल कर चलता है। जैसे इंसान अगर किसी बारूदी सुरंग वाले स्थान या ऐसे ही किसी खतरनाक स्थान से गुजरे। रास्ते और सड़कों पर चलने के लिए भी काफी होशियार रहना पड़ता है यहां तक कि बाजारों में भी हम चौकन्ना रहते हैं क्योंकि ऐसी हमेशा संभावना बनी रहती है कि उन चीजों से हमारा सामना न हो जाए जिसको देखने या करने से हमें रोका गया है। ऐसा होने पर हम अपनी नजरें नीची कर लेते हैं या अपना चेहरा फेर लेते हैं। जो लोग ऐसा करते हैं उनका न तो भौतिक रूप से कोई नुकसान होता है और न ही आध्यात्मिक रूप से और न ही उसकी ज़ात से किसी को तकलीफ ही पहुंचती हैं जो लोग अल्लाह की राह में पूरी ईमानदारी ओर लगन से काम करते हैं वह कभी भी इतनी आसानी से शैतानी कामों के जाल में नहीं फंस सकते। उसके दूसरी ओर, जो लोग दूसरों पर गलत निगाह डालते हैं या किसी को ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं वे इसके सिवा कुछ हासिल नहीं करते कि अपने लिए किसी मुसीबत को दावत देते हैं। अस्पताल, अदालतें, जेल और रोजाना अखबारों में छपने वाली खबरें ऐसे लोगों के बारे में खबरें बयां करती है या मामले लाती हैं जो इस प्रकार की मुसीबतों को दावत देते हैं और न केवल अपने आपको नुकसान में धकेलते हैं बल्कि अपने जीवन साथी, अपने परिवार के सदस्यों, समाज और अपने देश की भी खतरे में डालते हैं। आप उन लोगों से किसी भलाई की अधिक उम्मीद नहीं कर सकते जो अपने को इस प्रकार के गुनाहों में लिप्त रखते हैं।
एक हदीस में पैगम्बर मुहम्मद स.अ.व. ने फरमायाः “एक समय ऐसा आएगा जब किसी इंसान के लिए अपने ईमान की रक्षा करना वैसा ही मुश्किल हो जाएगा जौसा कि अपने हाथ में गर्म अंगारे को रखना। अगर आप इसे दूर फेंक देंगे तो अपने ईमान को खो देंगे और अगर उसे अपने पास रखते हैं तो आपको वह जला डालेगा।”2
एक दूसरी हदीस में आपने फरमायाः “नजर अर्थात दूसरों पर बुरी नजर डालना शैतानी जहरीले तीरों में से एक तीर है।”3 जब यह किसी इंसान के दिल को लगती है और उसके दलि और आंखों को भेदती है तो उस इंसान की तबाही लाजमी है। उन्होंने अपने शब्दों में अल्लाह की इस दिव्य इच्छा का वर्णन किया और फरमायाः “अगर कोई भी इस प्रकार के कामों को मुझ से खौफ खा कर करना छोड़ देता है, तो मैं उसके दिल को ऐसी ईमान की रौशनी और खुशी से भर देता हूं कि अपने दिल की गहराई से उसे महसूस करने लगता है।”4
अल्लाह के रस ने अपने पैगामात एवं संदेशों के जरिये इस प्रकार के जहरीले शैतानी तीरों से आगाह और सचेत किया है और साथ ही अपने करीबी रिश्तेदारों के साथ ऐसा मामला कर के एक उत्तम उदाहरण भी पेश किया है। जब वे लोग हज के दौरान पहाड़ से नीचे उतर रहे थे, तो उन्होंने अपने चचेरे भाई, फदल, जो हजरत अब्बास का बेटा था, को अपने ऊँट पर सवार होने की इजाजत दी और अपने कजिन को उन औरतों की नजरों से बचाने के लिए जो उनके आस-पास से गुजर रही थीं तो अल्लाह के नबी अपने कजिन के सर को इस ओर सो उस ओर घुमा दिया करते थे ताकि उन औरतों पर उनकी नजर न टिके।5 याद कीजिए कि ऐसा वाक्या हज के दौरान पेश आया जहां इस प्रकार के काम करने के बारे में आदमी सोच भी नहीं सकता और जब हजरत आएशा के शब्दों में जो सारे मोमिन की मां है, औरतें उस समय भी अपन चेहरा ढक लिया करती थीं जब फरिश्ते के सरदार जिब्रील अ. अल्लाह के नबी के पास अल्लाह के संदेशों को बता रहे होते थे। यहां तक कि जब हम मस्जिदों में अपने दिल को काबू में रखने की कोशिश करते हैं और दूसरे अच्छे मुसलमानों के बीच तो फिर आप के जमाने में हज के दौरान पैगम्बर के अपने चचेरे भाई के चेहरे को इधर उधर फेरने से क्या अर्थ निकालेंगे? निस्संदेह, पैगम्बर ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि उनका चचेरे भाई किसी प्रकार के भटकाव का शिकार हो और शैतानी तीर उसे आ लगे जो उसके दिल में अपने गंदे बीज डाल दे और उनके दिमाग को प्रदूषित कर दे। वह भी ऐसे समय में जब अपनी उम्र एवं समय के तकाजे के हिसाब से फदल के लिए ऐसा करना एक मुश्किल काम था।
इस घटना के पीछे जो अर्थ छुपा हुआ है वह यह कि बुराई को उसकी जड़ में ही काट देना बेहतर है। इसकी मिसाल ऐसी है मानों कि एक दियासलाई का बक्सा जंगल में इसलिए न ले जाने दिया जाए क्योंकि इससे आग लग जाने का खतरा बना रहेगा। यहां तक कि अगर लड़ाई का खतरा न रहे तब भी अक्ल यही कहती है कि आप अपनी सरहद एवं मुख्यालयों की सिपाहियों द्वारा सुरक्षा चाको चौबंद एवं दुरूस्त रखिए। आस पास में बिलों को बंद कर दीजिए ताकि जहरीले सांप और बिच्छू उसमें अपना बसेरा न बना सके। हर बुराई के लिए पहले से एक रूकावट तैयार करनी जरूरी है ताकि वह रास्ता भटक न जाए और पूरा परिवार टूट फूट का शिकार न होने पाए। बलात्कार, व्यभिचार, हत्या और दूसरे सारे प्रकार के अनैतिक काम और बुराईयों एवं भटकाव का रास्ता पहले ही बंद कर दीजिए। सारे गुनाहों को बचाव के द्वारा भगाईए। यही अल्लाह ने सीधे रास्ते के तौर पर दुनिया को बताया है।
पैगम्बर मुहम्मद स.अ.व. ने हजरत अली से फरमाया जो केवल सात साल की उम्र में ही मुसलमान बन गए थे और जो उन्हीं की जेरे-तरबीयत परवान चढ़े और फले फूले, वह उनके चचेरे भाई थे और बाद में उन्ही की नस्ल से उनकी नस्ल आगे बढ़ने वाली थीः “ऐ अली, पहली नजर तो तुम्हारे हक में है मगर दूसरी नजर तुम्हारे खिलाफ है।” जब तुम्हारी आँखों किसी ऐसी चीज पर पड़े जिसे देखने से मना किया गया है, तो पहली नजर के लिए तुमसे पूछा नहीं जाएगा क्योंकि तुमने जान बूझ कर ऐसा नहीं किया लेकिन अगर दूसरी बार तुम ने नजर नहीं फेरी और देखते रहे तो फिर तुम से इस बाबत सवाल किया जाएगा और उपयुक्त सजा दी जाएगी। क्योंकि गुनाहों की ओर धकेलनी वाली यह पहली कड़ी है।” इसलिए पैगंबर ने हमारे लिए पहले उन दरवाजों को बंद करने का काम किया जिससे गुजर कर हम अपना नुकसान कर सकते थे।
[ II ]
केवल किसी को इसलिएउ बाहर नहीं निकालना चाहिए क्योंकि वह ऊब कर शिकार है। अपने कमरे से बिना सोचे समझे उठ कर यूं ही कहीं भी निकल पड़ना एक प्रकार से आपकी कमजोरी और आपके नजरिये की खराबी मानी जाएगी। क्योंकि ऐसे में इंसान को नकारात्मक चीजों से अधिक सामना करने का मौका लिता है और ऐसे ही जैसे तवे से निकल कर आग में गिर पड़े हों।
इंसान में बोरियत तब पैदा होती है जब आपका दिल किसी भी चीज से जुड़ा न हो, अल्लाह और उसके रसूल ने आपकी दूरी हो, आपका इबादत करने में न मन लगता हो, आपका समय सुस्ती और काहली में गुजरता हो, किताबों से दूर रहते हों, ठीक से सोच विचार न करते हों, आपके दोस्त न के बराबर हों और आपके पास ऐसी कोई जिम्मेदारी भी न हो जिसको पूरा करने की आप पर चिंता सवार रहती हो और न ही अल्लाह की राह में कोई काम करते हों जैसा कि करने की आप से उम्मीद की जाती है। ऐसे लोगों के लिए शैतान के मकड़जाला में फंस जाना बेहद आसान होता है। यह ऐसे कि इंसान फिर उन गड्ढों से हो कर गुजरे जहां उसे शैतान ने पहले ही जख्मी कर रखा हो और ऐसा ही है मानों प्यास बुझाने के लिए समुद्र का पानी कोई पीए और प्यास बुझने के बजाए और बढ़ती जाए।
इस परिस्थिति में देखने का एक और तरीका है। अल्लाह, अपने पाक नाम क़ब्ज की बदौलत, एक इंसान के दिल को पकड़ता है या उसे संकुचित कर देता है; इसे आध्यात्मिक निर्जनता कह सकते हैं और यह एक प्रकार से इंसान की जांच की जाती है कि उसके अंदर अकीदे की पुख्तगी और वफादारी कितनी हैं इंसान की जांच इसलिए भी की जाती है कि देखें कि वह इबादत और दुआ का सहारा लेता है या फिर मुंह फेर लेता है। यह भी याद दिलाने वाली बात है कि ऐसी अवस्था में की गई सारी प्रकार की इबादतें और दुआएं अल्लाह के नजदीक अधिक मक़बूल और काबिले कबूल होती हैं उन दुआओं एवं इबादतों के मुकाबले जो इंसान अपने अच्छे दिनों में करता है, या फिर आसानी के साथ वह आम मुसलमानों के साथ बजा लाता है, जिस प्रकार बदली भरे मौसम के सूरज नमूदार होता है और अपनी रौशनी बिखेरता है अल्लाह के पाक नाम बासित के बदौलत, वह इंसान के दिल को फैला देता है और उसे आराम और आग्रह की ओर लौटा देता है। इस प्रकार अल्लाह लोगों को उस हिसाब से इनामात से नवाजता है जिस मात्रा में उन्होंने तकलीफें और मुसीबतें उठाई हैं।
सारांश के तौर पर, किसी इंसान को बिना जरूरत के बाहर नहीं आना जाना चाहिए और अगर वह ऐसा करता ही है, तो उसे ऐसे मौकों पर कुछ काम करना चाहिए। उसे ऐसी जगहों से अपने को दूर रखना चाहिए जहां गुनाह के काम होते हों और जहां अल्लाह की राह में खिदमत न की जाती हो।
जो कोई इंसान बाहर जाए तो इंसान को अपने समय एवं उस स्थान का पूरा ध्यान रखना चाहिए जहां वह जा रहा है। अल्लाह के नबी के महान साथी जैसे हज़रत अबू बकर, हजरत उमर, और हज़रत अबूज़र, अक्सर इस्लाम की शिक्षा देने के लिए बाहर आया जाया करते थे। जो लोग इस प्रकार के नेक काम के इरादे से बाहर जाते हैं वह गली कुचे की सारी बुराईयों से महफूज रहते हैं। जब पैगम्बर मुहम्मद स.अ.व. ने लोगों को इस बा से मना किया किया वे सड़क किनारे यूं ही न बैठा करें, तो मुसलमानों ने जवाब दिया कि ऐसा वह किसी न किसी मकसद के तहत करते हैं। तो पैगम्बर ने जवाब दियाः तो फिर तुम उन रास्तों को उसका उचित हक अदा करो।” यानि उसे हर प्रकार की गंदगी, कंकड़ पत्थर और रूकावटों से पाक रखो और आने जाने वालों को बुरे से दूर रहो और सच बात कहो। केवल इसी नेक इरादे के साथ किसी इंसान के गुनाह और बुरे काम अच्छे कामों से बदले जा सकते हैं।
[ III ]
इंसान को इस बात का आह्वान करना चाहिए कि वह अध्ययन में मन लगाए, अच्छी ओर नेक बातें सुने, ऐसा काम करे जिससे उसके ज्ञान में इज़ाफा होता हो, अल्लाह की ज़ात पर छुपे और खुले तरीके से आश्चर्य की भावना प्रकट करे, अपने नफ़्स को पाक करे, दुनिया में अच्छे काम करने के प्रति ही अपना ध्यान केंद्रित करे और अपने एहसासात एवं मकसद को उन नेक कामों को जरिए रखे चाहे जब वह स्कूल जा रहा हो या किसी दूसरे काम पर जा रहा हो या किसी और काम में लगा हो। बाहर जाने से पहले यह जरूर तौलनार चाहिए कि वह किसी नेक और अहम काम के इरादे से जा रहा है और अपने आप पर गहरी नजर रखे कि उसने क्या खोया और क्या पाया और अपने को आध्यात्मिक तनाव से सुसज्जित रखे ताकि उसका बचाव हो सके या उसकी ढाल का काम कर सके। इस तरीके से अल्लाह उसे शैतान और गुनाहों से बचने में मदद कर सकता है।
[ IV ]
किसी को बाहर इस प्रकार जाना चाहिए कि वह अकेला रहे। बल्कि उसके साथ एक-दो अच्छे दोस्त होने चाहिए जो उसका अच्छे कामों की ओर ध्यान केंद्रित करने में मदद करें और जो इस बात के लिए तैयार रहे कि उसे समय पड़ने पर अच्छे मशविरे दे सके और उसके आध्यात्मिक स्रोत को जगाए रखे। क्योंकि अक्सर ऐसा देखने में आया है कि इंसान केवल अपने बल पर बुरी चीजों के चंगुल में फंसने से अपनी रक्षा नहीं कर पाता। हो सकता है कि इंसान के दिमाग में हमेशा यह बात न रहती हो कि उसे हर पल अल्लाह देख रहा है। ऐसा भी समय आ सकता है जब उसके अंदर का यह एहसास जाता रहे और अपने आप पर से उसका नियंत्रण कमजोर पड़ जाए और उसकी नजर बुरी चीजों पर पड़ जाए और इस प्रकार उसके दिल में एक जख्म का पैदा हो जाना लाज़मी है और फिर गुनाह पनपना शुरू हो जाता है। लेकिन अगर उसके साथ अच्छे और समझदार दोस्त हों और सब एक दूसरे पर कड़ी नजर बनाए हुए हों तो उनकी बातचीत का केंद्र भी अच्छी बातें होंगी और वह उन चीजों के प्रति अधिक सचेत होंगे जो कुछ वे देख रहे होंगे या सुन रहे होंगे। ऐसा लम्हा भी आ सकता है जब किसी को यह ख्याल न रहे कि अल्लाह हमेशा उसे देख रहा होता है, तो ऐसी हालत में उसे किसी बुरे काम से बचने के लिए फिर किसी दोस्त की जरूरत न समझ में आती हो और फिर वह गलत कामों के जाल में फंस सकता है। इसे कहा जा सकता है कि उसके अंदर गुनाहों से बचने के प्रति पूरी ईमानदारी नहीं थी या किसी हद तक उसने पाखंड का सहारा लिया और केवल अच्छा बने रहने का नाटक किया; क्योंक पाखंड इंसान के अच्छे कामों को तबाह कर देता है जैसा कि नमाज को, लेकिन यह नकारात्मक चीजों को नहीहं मिटाता और ऐसे कामों से नहीं रोकता जो बुरे हों। उदाहरण के तौर पर, एक इंसान व्यभिचार का शिकार नहीं होता तब तक कि वह अपने को अच्छा इंसान समझता रहता है और उसने अभी तक उस काम को किया नहीं है, अगर वह कोई चीज इसलिए नहीं चुराता क्योंकि दूसरे लोगों की उस पर नजर है, उस हालत में भी जब उसने चोरी नही की हो। जब आंख, हाथ, पांव, कान और दिमाग व्यभिचार में लिप्त होते हैं या कोई भी दूसरी चीज इंसान को गुनाह की ओर जाती हो उसको छोड़ दिया गया हो, यहां तक कि दूसरों को गुनाह की ओर जाती हो उसको छोड़ दिया गया हो, यहां तक कि दूसरों को वह अच्छा मालूम होता हो, तो इंसान अपने को उस समय तक गुनाहों से महफूज समझता है जब तक कि वह उसकी रूह को पूरी तरह अपने काबू में न कर ले और गुनाह का काम न कर बैठे और ऐसा हो कि यह सब कुछ दिल में हो और उसे वास्तव में करने का साहस न जुटाए। उसके अलावा जिन कामों से रूकने के लिए मना किया गया है उससे रूक जाने का अल्लाह की ओर से इनाम दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर, अगर किसी ने बुरी चीज पर नजर डालने से अपने को रोके रखा तो उसने एक अच्छे काम की बदौलत नेकी हासिल की।
[ V ]
जब इंसान किसी काम से बाहर जाए तो उसे अपने साथ कुछ अच्छी धार्मिक पुस्तकें अवश्य ले जानी चाहिए। इससे उसे बुराई से बचने में मदद मिलेगी और साथ ही फरिश्ते भी उसकी हिफाजत करते रहेगे। ऐसी सामग्री जो गुनाहों से बचाव का काम करती हैं, उसके अपने आंतरिक गौरो-फिक्र के लिए भी यह एक जरिया बनेगी और उसे उस एहसास भी रहेगा कि वह किसी की देख रेख में है। अगर उसके पास इस प्रकार की पुस्तकें या सामग्री रहेगी तो बड़ी मुश्किल से ही वह कोई गुनाह कर पाएगा।
[ VI ]
जैसे ही कोई इंसान किसी गुनाह का काम कर बैठे तो उसे चाहिए कि वह तुरंत तौबा करे और अल्लाह से माफी मांगे। जो लोग गुनाह करते हैं उनके लिए फिर अल्लाह से की ओर से काई रहमत और सुरक्षा हासिल नहीं होती। प्रत्येक गुनाह के बाद एक दूसरा गुनाह इंसान कर बैठता है। जो एक बार गुनाह कर बैठता है तो फिर वह शैतान का आसान शिकार भी बन जाता है और ऐसी संभावना रहती है कि शैतान का हमला लगातार जारी रहेगा। जिस प्रकार इंसान गुनाहों की दलदल में धंसता चला जाता है तो अल्लाह की रज़ा और उसकी हिफाज़त से भी महरूम होता जाता है।
इंसान के अंदर गुनाह का स्थान पाने को जो सबसे उत्तम स्थान होता है वह उसक दिल है। किसी भी गलत काम को वहां टिकने का मोका नहीं मिलना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे किसी गर्म दिन में बादलों की आवाजाही लगी रहे और फिर वह तुरंत गायब हो जाएं। गुनाह एक प्रकार की गंदगी है, धब्बा है और दिलों के जंग की मानिंद है। जैसा कि एक हदीस में इसे बयान किया गया है, जब गंदगी और जंग का ढेर लग जाता है उस कारण से कि उसे तुरंत साफ नहीं किया जाता तो फिर वह अल्लाह और उसके बीच में घायल हो जाता है और उसकी रहमत एवं दया को रोक देता है। क्या शैतान के लिए इससे भी कोई आसान निशाना हो सकता है कि वह इंसान के दिल को शिकार बनाए?
गुनाह की चाहे जो भी प्रकृति हो, इंसान को यही चाहिए कि वह कभी अपने दिल और रूह के अंदर नकारात्मक चीजों को जमा न होने दें। उसे चाहिए कि अल्लाह के आगे झुके, तौबा करे और उससे माफी मांगे और उसकी रहमत का सवाल करे। एक बार एक सहाबी अल्लाह के नबी के पास आया और वह बहुत परेशान था कि वह बुरी तरह तबाह व बर्बाद हो चुका है। उसने बताया कि रास्ते में उसने न सिर्फ एक औरत को देखा बल्कि उसे छुआ भी। वह सहाबी वाकई उस गुनाह को करके इतना आहत था कि तुरंत जिब्रील अ. इन आयतों के साथ अल्लाह के नबी के पास हाजिर हुआः
नमाज पढ़ा करो दिन के दो किनारों पर यानि फज्र, जोहर और अस्र और फिर रात घिरने पर यानि मगरिब और इशा के समय। क्योंकि नेकी बुराईयों को दूर कर देती है। यह उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो गंभीर हैं (हूद 11:114)
इबादत के जरिये ही हम बुरे कामों को अपने से दूर रख सकते हैं, अल्लाह गुनाहों को माफ कर देता है और उसे अच्छाईयों से बदल देता है। खासतौर पर तहज्जुद की नमाज के द्वारा जो आधी रात के बाद पूरे सन्नाटे में पढ़ी जाती है, इसमें काफी मशक्कत उठानी पड़ती है क्योंकि इंसान अपनी नींद को तर्क कर देता है और अल्लाह के सामने आ खड़ा होता है यह वह काम है जिससे इंसान के गुनाह तेजी के साथ खत्म हो जाते हैं।6
जो इबादत और दुआएं रात के सन्नाटे में वह भी रात के तीसरे पहर में पूरे खौफ एवं उम्मीद से की जाती है। वैसी दुआएं एवं इबादतें अल्लाह के यहां मकबूल होती हैं। लेकिन शर्त यह है कि उस दुआ में दुआ में आपको खुलूस और पूरी ईमानदारी शामिल हो। हर दिन पांच वक्त की नमाज़ अदा करना इंसान की जिंदगी में एक खास अर्थ को प्रदर्शित करती है और उन्हें यह सुनहरा अवसर प्राप्त होता है कि दो वक्तों की नमाज के बीच अगर उन्होंने कोई गुनाह का काम किया है तो उस नमाज की बरकत से उसे माफ कर दिया जाता है।7 उसके साथ ही हमें अल्लाह की खुशी हासिल करने के लिए तहज्जुद की नमाज पढ़नी चाहिए।8
एक अलग मगर महत्वपूर्ण बात यह कि अगर किसी ने कोई अपराध किया है और उसको लेकर वह शर्मिंदा भी है और उसका जिक्र किसी और से नहीं करना चाहेगा। लेकिन वह इस बात से पूरी तरह वाकिफ़ है कि अल्लाह और उसके फरिश्ते उसे ऐसा करते हुए जरूर देख रहे थे। शैतान तो ऐसे लम्हे की ताक़ में बैठा रहता है और वह चाहेगा कि गुनहगार की जुबान से यह शब्द कहलवाएः “काश कि कोई मुझे गुनाह करते हुए न देखे और न इसके बारे में जाने।” यहां तक कि यह भी “काश कि यह गुनाह का काम न होता।” यह याद रखिए कि अल्लाह ने जिस काम को करने से मना किया है उसको स्वीकार न करना इंसान को अविश्वास की ओर ले जाता है।
इस बात पर भी जोर देना चाहिए कि उसने जो गुनाह किया है वह मामूली स्तर का है वह भी अविश्वास की ओर ले जाता है। कुछ लोगा गुनाह के इतन आदी हो जाते हैं कि उनके दिल उस दलदल से निकलना मुश्किल हो जाता है। ऐसा भी हो सकता है कि ऐसे लोगों को बचाने की कोशिश में हम उसे और बुरी स्थिति की ओर धकेल दें। उदाहरण के तौर पर, अगर हम किसी कमजोर मुसलमान से कहत हैं कि “शराब मत पीयो। यह इस्लाम में मना है। या “मुझे लगता है कि यह नियम काफी सख्त हैं।” ठीक उसी प्रकार, बार बार किसी को नमाज पढ़ने के लिए कहने पर कोई कमजोर ईमान वाला आदमी कह सकता हैः “मैं नमाज नहीं पढ़ूंगा।” ऐसा वह इसलिए कहता है कि उसका ईमान पुख्ता नहीं है इसलिए उसके दूर भटकने की उम्मीद ज्यादा है।
आवश्यक रूप से, अगर किसी गुनाह पर जोर दिया जाए तो वह गुनाह है, खासतौर पर यह समझे कि यह मामूली दर्जे का गुनाह है और उसके नुकसान से खौफ न खाए और न ही उसके अंदर पछतावे का भाव उत्पन्न हो और उसके लिए अल्लाह से माफी मांगे। उसके विपरीत अगर कोई आदमी गुनाह के कामों को लेकर अधिक हठी नहीं है और उसके नुकसान से भी वाकिफ है तो वह बचने की कोशिश करता है और पछताता है कि उसने ऐसा किया और अल्लाह से माफी मांगता है और उसकी रहमत का तलबगार बनता है, जैसा कि कुरआन में फरमाया गया है, कि जो माफी मांगेगा उसे माफ किया जाएगा और उस पर रहम किया जाएगा। लेकिन अगर गुनाह पहाड़ जितना भी बराबर हो तो भी ऐसी हालत में उसे पूरी तरह मायूस नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि कोई ऐसा गुनाह नहीं है जिसे अल्लाह चाहे तो माफ न फरमाए। केवल शिर्क यानि अल्लाह की ज़ात में किसी और को शरीक करना या उसका साझीदार ठहराना एक ऐसा गुनाह है जिसे माफ नहीं किया जाएगा क्योंकि उसका सर किसी ऐसे खुदा के आगे झुकता है जो वास्तव में मौजूद ही नहीं है।
[ VII ]
इंसान को चाहिए कि वह अपना समय सुस्ती और काहिली में न गुजारे बल्कि किसी न किसी प्रकार की जिम्मेदारी से अपने को बांधे रखे और किसी न किसी काम में मशगूल रहे। शैतान ऐसे लोगों को फौरन अपना शिकार बना लेता है क्योंकि वह नहीं चाहता कि कोई इंसान आध्यात्मिक एवं बौद्धिक स्तर पर शअूर और अक्ल वाला बन जाए और अल्लाह का अस्ली बंदा बन कर रहे। अगर इंसान बिना किसी मसरूफियत के अपना वक्त गुजारता है तो शैतान उसके दिमाग पर अपना कब्जा जमा लेता है और उसमें तरह तरह की गलत आरजूएं भर देता है, उसमें गुनाह की बातों का बसेरा हो जाता है और मना की गई चीजों को करने के लिए प्रेरित करता है। कोई भी इंसान अच्छे काम करके अपने दिमाग और दिल के उन छेदों को बंद कर सकता है जहां से शैतान के प्रवेश करने की संभावना रहती है अगर कोई इंसान अल्लाह के संदेशों को फैलाने की मुहिम में अपने को मशगूल रखता है और थकान का अनुभव नहीं करता तो ऐसे लोग अपने अंदर ऊर्जा, ताकत और खुशी महसूस करेंगे। उनका जिस्म और रूह दोनों उस खुशी से शरशार हो जाएगा। जैसा कि एक हदीस में बयान किया गया है, चूंकि वह गुनाहों से बचता है और भलाई को अपनाता है, वह अपने जीवन में अल्लाह के संदेशों को रहमत और प्रेरणा के तौर पर मौजूद पाएगा, उसकी रोजी और जिंदगी की दूसरी सारी जरूरतें भी पूरी की जाएंगी और उसमें बरकत नसीब होगी और उसका घर ऐसा हो जाएगा कि मानों जन्नत का कोई ठिकाना हो। जैसा कि एक दूसरी हदीस में बयान किया गया है, अगर अल्लाह की राह में कोशिश को छोड़ दिया जाएगा, तो अल्लाह की इस प्रकार की रहमत से महरूम कर दिया जाएगा और फिर उनके लिए सख्त अजाब है।
[ VIII ]
अल्लाह उन लोगों की मदद करता है जो अपने आपको दूसरों की सेवा में लगा देते हैं, अल्लाह और उसके नबी की खिदमत करते हैं, उसके दीन को फैलाते हैं, लोगों को उससे आगाह करते हैं और उनके अंदर ईमान की रौशनी भरते हैं। अल्लाह ने उन लोगों के साथ इस प्रकार का वादा किया हैः
ऐ लोगों जो ईमान लाए हो, अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा, और तुम्हारे कदम मजबूती से जमा देगा। (मुहम्मद 47:7)
यह स्पष्ट है कि अल्लाह ऐसे लोगों को न तो राह से भटकने देगा न उसको गुमराह करेगा और न उसको तबाह करेगा। वह हर प्रकार के गुनाह से बचा रहेगा और अपने नफ़्सय की बुराई से भी। पैगम्बर मुहम्मद स.अ.व. ने फरमाया कि अगर कोई अल्लाह के करीब होता है तो अल्लाह उससे दस गुण अधिक उसके करीब हो जाता है, अगर कोई अल्लाह से एक कदम दूर हटता है तो वह उससे काफी दूर हो जाता है। इसलिए अगर कोई इस्लाम का पालन करता है, नमाजें पढ़ता है और दूसरी जिम्मेदारियां पूरी करता है और अल्लाह के रास्ते में मदद करता है, तो अल्लाह उसे कई गुणा सवाब देगा और उसे रास्ते से भटकने नहीं देगा और वह अपनी आरजूओं एवं ख्वाहिशों का गुलाम भी नहीं बनेगा और उसके गुनाह को नेकियों से बदल दिया जाएगा और उसे ऐसी नेमत से नवाजा जाएगा जिसके बारे में उसाने कभी जाना और देखा भी नहीं होगा।
उसके दूसरी ओर हम सख्त खराब हालात के शिकार हैं, गुनाहों से घिरे हुए हैं। लेकिन अगर कोई इंसान अपनी हालत को सुधारना चाहे तो उसके लिए मौका भी है। अगर वह इस नजरिये के साथ आगे बढ़ेगा तो वह अपने अंदर वैसी ही ऊर्जा पाएगा जैसा कि सहाबा-एकराम के अंदर मौजूद थी। हमारे पास मौका है कि हम उन लोगों जैसे बनें और उनके समूह में शामिल हो जाएं। उनके चेहरों पर फिर ताजगी आ जाएगी और कुरआन का नूर चमकता दिखाई देगा जबकि हम उन सहाबा-एकराम से सदियों साल बाद जिंदगी गुजार रहे हैं। अगर हम उसी जज्बे के साथ आगे बढ़ें जैसा कि सहाबा-एकराम के अंदर मौजूद था जब वह पैगम्बर मुहम्मद के पीछे दिखा रहे थे तो हम भी अल्लाह की रहमत में शामिल हो सकते हैं।
अल्लाह हमें अपने रहमत से दूर न करे। इसी उम्मीद के साथ अपनी बात खत्म करता हूं। आमीन।
3.3 ईमान वालों को दूसरों को ईमान और यकीन की तरफ कैसे बुलाना चाहिए?
दुनिया में पैगम्बरों के भेजने का बस एक ही मकसद था कि वह अल्लाह के संदेशों को दुनिया वालों तक पहुंचाएं, जो इंसान के ऊपर सबसे बड़ी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें इस लिए भेजा गया कि वह सच्चे धर्म के द्वारा लोगों के दिल को आलोकित करे और उन्हें अच्छे कामों की ओर बुलाएं। इस रौशनी में हमने पहले और आज भी जो कुछ दीन और धर्म को फैलाने के तरीके अख्तियार किए हैं उसको फिर जांचे परखें कि व्यावहारिक रूप से आज की परिस्थिति के हिसाब से करना क्या उपयुक्त रहेगा और जिसके अच्छे परिणाम भी सामने आएं। हर इंसान जिसने एक उम्र गुजार ली है उसे चाहिए कि वह अल्लाह के दीन को फैलाने के लिए कुछ अच्छे काम करे ताकि उसका दीन सभी तक पहुंच जाएउ और उस तरीके से इस काम को अंजाम दे जो सभी तक पहुंच जाए ओर उस तरीके से इस काम को अंजाम दे जो सभी तक पहुंच जाए और उस तरीके से इस काम को अंजाम दे जो सभी के लिए स्वीकार्य हो और उसक काम के अनुकूल आपका आचरण भी हो। इंसान की उम्र चाहे जो भी हो और उसकी हैसियत जो भी हो। इंसान का यह फर्ज बनता है कि वह दूसरों तक अल्लाह के पैग़ामात को पहुंचाए और यह उसके दायित्वों में सबसे प्रमुख स्थान रखता है। हमारी जिंदगी का मकसद भी यही है। इसलिए अल्लाह ने अपनी पाक किताब कुरआन मजीद में फरमाया हैः मैंने इंसान और जिन्न को केवल अपनी इबादत के लिए पैदा किया है। (जुर्रियात 51:56) ऐसी इबादत और बंदगी उस दौड़ के समान है जिसमें सभी को भाग लेना जरूरी हैं कुछ लोग इस दौड़ में भिन्न भिन्न प्रकार की बाधाओं का शिकार होंगे और कुछ लोग बड़ी कामयाबी और सरलता से उसे जीत जाएंगे यहां तक कि अल्लाह की कुरबत को हासिल कर लेंगे।
इंसान की फितरत ही इस प्रकार बनाई गई है कि वह अल्लाह को जानें और उसी की इबादत में अपनी जिंदगी को लगा दें। यही उसकी जिंदगी का सार भी है। इबादत, बंदगी केवपल इससे नहीं आ जाती है कि आप कुछ निश्चित नियमों को सुन लें, उसके बारे में जान लें, समझ लें या उससे स्वीकार लें या अपने जीवन में उसे लागू भी कर लें, बल्कि यह भी जरूरी है कि वह अपने दिमाग और दिल को साफ करने की कोशिश करें और केवल अल्लाह की अजीबो-गरीब कायनात करे बारे में सोच विचार करें जिनकी कोशिश मुश्किल, मगर सूक्ष्म एवं साफ है।
ऐ लोगों, उस अल्लाह की इबादत करो जिसने तुम्हें पैदा किया है और उन्हें पैदा किया जो तुमसे पहले इस दुनिया में आ चुके हैं ताकि तुम नेक काम करने वाले और आसमान को छतः आसमान से तुम्हारे लिए बारिश कीः तुम्हारे गुजारे के लिए तरह-तरह के फल और और अनाज पैदा किए; फिर अल्लाह के मुकाबले किसी और को उसका साझीदार मत ठहराओ जब तुम सच से वाकिफ़ हो। (बक़रा 2:21)
अपने अल्लाह की इबादत करो। क्योंकि उसी ने तुम्हें पैदा किया है। तुम्हारे अलावा उन्हें भी पैदा किया जो इस दुनिया में तुमसे पहले आ चुके हैं। यह पैदा करने का काम और जो चीजें उसने पैदा कीं वह सब उसी का है। वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें वजूद बख्शा है और जिसने एक अर्थ में तुम्हें उस समय पैदा किया जब तुम दुनिया में आए भी नहीं थे, तुम जिन तत्वों पदार्थों से बने हो उसे पैदा किया और जिसने तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया। वह अल्लाह ही है जिसने तुमसे पहले बहुत से लोगों को नेस्तनाबूद कर दिया जैसे फिरऔन, नमरूद, शद्दाद और ऐसे बड़े-बड़े साम्राज्य जैसे रोमन, ग्रीक बाईजेंटाइन, ओटोमन इत्यादि को उसके जमीन पर फलने फूलने के बाद फिर बेनामो निशान कर दिया। उसी अल्लाह ने हर चीज को बनाया भी और उसे खत्म भी किया। इसलिए ध्यान रखो कि अल्लाह के अलावा किसाी और के आगे तुम्हारा सर न झुके जो तुम्हारा पैदा करने वाला, रोजी देने वाला और रहम करने वाला है। हमेशा अपने दिमाग और दिल में इस बात को बिठा कर रखो ताकि तुम नेकी करने वालों के बीच शामिल हो सको और अल्लाह को पहचान सको।9
यह अल्लाह ही है जिसने जमीन को तुम्हारे लिए ठहरने की जगह बनाई।10 उसने इसमें इस प्रकार चीजें पैदा कीं जो तुम्हारी जरूरत के हिसाब से हर समय मुहैया हो सकें। ऐसा है मानों कि यह दुनिया एक बड़ी सी हवेली हो और इस हवेली का मालिक अल्लाह हौ जो अपने कमजोर मेहमानों के लिए पूरी सुख सुविधा का ख्याल रखे और उसका आदर सत्कार भी करे और उसकी हैसियत एवं मर्तबे के हिसाब से उससे सुलूक करे। अगर इस जमीन पर जरा सी भी कोई गड़बड़ी हुई, तो मेहमान कुछ नहीं कर पाएंगे और न उनके पास कहीं और भागने की जगह होगी। इसलिए हर चीज को इस अंदाजे से व्यवस्थित किया गय है ताकि उसके मेहमानों को यहां रहते हुए तकलीफ न पहुंचे, उसकी सारी जरूरतें पूरी हों। वह बेशक उसकी जरूरतें पूरी हों। वह बेशक उसकी जरूरतों और कमजोरियों दोनों से वाकिफ़ हैं जब मेहमान पीठ के बल लेट कर आसमान की ओर देखता है तो उसे यह सितारों से सुसज्जित नजर आता है। यह अल्लाह ही है जिसने ऐसी सुंदर छत उनके लिए बनाई।
उसने उस आसमान को पूरी तरह सुरक्षा प्रदान की।11 जमीन और आसमान के बीच पहले से तय की गई एक गजब की व्यवस्था काम करती रहती है। आसमान से सूरज की रौशनी और गर्मी हासिल होती है तो जमीन उसके बदले फल फूल उगाती हैं। जमीन पर जो पानी बरसता है वह फिर भाप बन कर आसमान की ओर जाता है और आसमान फिर उसे बारिश की शक्ल में लौटा देता है। आसमान में बिजली की चमक, बादलों की गरज पैदा होती है और उसके ज़रखेज प्रभाव से जमीन अपना हिस्सा पाती है। आसमान से बारिश होती है और जमीन उसे अपने अंदर पीने के पानी के तौर पर ज़खीरा कर लेती है और सारे जानदार उसी पानी को पीते हैं और जिंदा रहते हैं और फिर एक दिन मर जाते हैं, जमीन को बदलते समय के साथ शुद्ध किया जाता है और जीवाणु रहित बनाया जाता है। मौसम भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस गेस्ट हाउस को किस व्यवस्था से बनाया गया है, इसे यूं ही नहीं छोड़ दिया गया है कि इसका काम अपने आप पूरा हो, बल्कि उसके विपरीत उसकी अच्छी देखभाल की जाती है और तरह-तरह की नेमतों से नवाजा जाता है ताकि उसके मेहमानों को किसी तरह की तकलीफ न पहुंचे। इसलिए उस अल्लाह की ओर पलटो जो तुम्हारा खालिक और मालिक है।
हम चारों ओर से अल्लाह की पैदा की गई आश्चर्यजनक चीजों से घिरे हुए हैं। उन सारी चीजों को बड़ी हिकमत एवं बुद्धिमत्ता के साथ संचालित किया जाता है। यह स्पष्ट है कि हमारी आंखों को जो रौशनी प्राप्त होती है, जुबान को जो जाएका हासिल होता है, कान को जो सुनने की शक्ति प्राप्त हुई और हमारी जो सारी शारीरिक एवं आध्यात्मिक जरूरतें हैं उन सब को हमें मुहैया कराया जो हमारे गुजारे का जरिया बना। यह सारी नेमतें केवल अल्लाह की ओर से ही हासिल होती हैं। वह इन नाना प्रकार की चीजों को हमें मुहैया कराने में कभी भी उलझन का शिकार नहीं होता। इसलिए उसको पहचानने और उसकी बंदगी करने में ईमानदारी से काम लो और उसके साथ किसी और को खुदा मत बनाओ और अपने को हर प्रकार के शिर्क की गंदगियों से महफूज रखो चाहे वह छोटा हो या बड़ा, खुला हो या छुपा हुआ।
दुनिया में जितने कारण या असबाब दिखाई देते हैं वह सब आकस्मिक एवं सेकेंड्री हैसियत रखते हैं। उनमें किसी को अपने बल बुते अपनी पहचान हासिल नहीं है। अगर अल्लाह ने उन कारणों को हमारे लिए नहीं बनाया होता तो हम इस बात की जरूरत भी महसूस नहीं करते कि किसी कारण से ही हमारी जरूरतें पूरी होंगी और हम उस प्रकार का शिर्क करने की कोशिश नहीं करते। चूंकि यह दुनिया ज्ञान की जगह है और जो कुछ हमारे सामने आता है वह किसी न किसी कारण से आता है तो हम केवल उन्हें एक सोचने वाली हालत के रूप में देखें। लेकिन हमारा असली फोकस हमेशा अल्लाह ही होना चाहिए जो सब चीजों का पैदा करने वाला है और जो सारे कारणों को अपने अधीन रखता है इसलिए हम अकेले उसी की इबादत करते हैं। जब हम कारणों में कुछ भागीदारी ठहराने लगते हैं, चाहे वह मुसीबत की घड़ी में हो, आपदा की हालत में हो, या दुख तकलीफ की स्थिति में हो, या खुशी के लम्हात हों तो चाहिए कि इंसान हर हाल में अपने संतुलन को कायम रखे और उस प्रकार की बातें करने और काम करने से परहेज करे जिसमें से शिर्क की बू आती हो। इसमें जिस संवेदनशीलता से काम लिया जाए वह उतनी ही हो जितना कि अल्लाह के साथ उस इंसान की कुरबत हैं जब किसी ने इस अभौतिक और अध्यात्मिक खुशियों का मजा चख लिया है, तो उसे चाहिए कि वह अल्लाह की उस प्रकार इबादत करे जो उस नेमत के शायाने-शान हो। उसे नहीं चाहिए कि एक लम्हे के लिए भी वह अपना रास्ता भटके और अल्लाह से दूर हो। अगर इस प्रकार का झुकाव किसी के अंदर पैदा होता है, तो उसे चाहिए कि वह तौहीद का इकरार करे और उसे मजबूती से थामे रहे। इसी प्रकार की इबादत ही जिंदगी को असाली मकसद होना चाहिए और सेवा की हर समझ जो उसे इस प्रकार के बुलंद मकसद की ओर ले जाए वह एक जिम्मेदारी हैं पैगम्बों को इसी हिकमत और जिम्मेदारी के साथ भेजा गया था। इसलिए हमें भी चाहिए कि हम भी नेकी की राह में खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लें और जो लोग इस प्रकार के नेक कामों में में हिस्सा लेते हैं वह उन लोगों मंे शामिल हो जाते हैं जो अल्लाह के नजदीक सबसे प्रिय हैं।
अगर किसी इंसान के लिए वह सारे रास्ते खोल दिए जाएं जिससे कि वह सदारत के ओहदे पर काबिल हो सके ओर फिर उसके सामने इस बात को भी रखा जाए कि अल्लाह के नेक बंदों का अल्लाह की निगाह में क्या मुकाम है तो फिर वह सद्र बनने के बजाए अल्लाह की बंदगी को अधिक महत्व देगा। क्योंकि वह जानता है कि यह वह काम हैं जिसे अल्लाह ने अपने पैगम्बरों और अपने नेक बंदों को सौंपा था। इसी तरीके से अल्लाह के नेक बंदे जैसे हज़रत उसमान, हज़रत अली और उन जैसे सारे लोगों ने महानता हासिल की थी। उसके दूसरी ओर वे लोग हैं जिनमें आध्यात्मिक एवं नैतिक खुराक हासिल नहीं हुई है और जिनका सारा समय तुच्छ राजनीति करने, नफरत फैलाने, साजिश और षड्यंत्र रचने में बीतता है।
हम इस प्रकार का जीवन जीते हैं जिसका कुछ भी करना हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन हमारे लिए यह संभव है कि हम अपने मौजूदा हालात से निकल कर बाहर आएं और कोई काम न करें सिवाए इसके कि इंतजार करें कि हमारा अंत करीब आ जाए और उस अवस्था को हासिल कर लें जिससे हमारा अल्लाह हमसे खुश हो जाए। यह तभी मुमकिन हो सकता है कि पहले आप अपनी रूहों को उन सिद्धांतों से भर लें जिससे कि अल्लाह की कुरबत हासिल करना आसान हो जाए; फिर एहसान का रवैया अख्तियार करें यानि अल्लाह की इस प्रकार इबादत करें जैसे कि हम उसे देख रहे हों। अपनी लगातार इबादत के जरिये उच्च स्तर पर पहुंच जाएं और इस्लाम के सारे नियमों एवं कानूनों को अपनी जिंदगी का आधार या स्तंभ बनाएं; फिर जो ज्ञान और इल्म हासिल करें उसे अपने लोगों के बीच भी ले जाएं ताकि वे जीवन के हर क्षेत्र में सफल हों और उन्हें एवं उनकी जगह को आध्यात्मिक ज्ञान से आलोकित करें।
इस मार्गदर्शक की भूमिका का बेहतर तौर पर निर्वाह करने के लिए हमें कुछ बिंदुओं को दिमाग में बसा कर रखना चाहिए। इस कार्य को सुचारू रूप से करने के लिए यह बेहतर होगा कि लोगों को बताएं कि इस काम को किस खूबी से करें और उनसे उनकी क्षमता से अधिक परिणाम की उम्मीद न करें। इन बातों को ध्यान रखते हुए निम्नलिखित कुछ बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।
[ I ]
हर इंसान को चाहिए कि जिसे वह दीन एवं धर्म की ओर बुला रहा है वह पहले उसके दिल को जीतने की कोशिश करे। कई प्रकार के अच्छे तरीके हैं जिसे अख्तियार कि जा सकता है, यानि उन्हें उपहार देकर या उनकी किसी परेशानी के समय उनकी मदद करके। वास्तव में इस प्रकार की हमदर्दी दिखाना मजहब का एक जरूरी हिस्सा है, जिस पर चलने के लिए हमें कहा गया, खास तौर पर ऐसे मौके से जब हम किसी को दीन की बात बताने जा रहे हों। इसलिए यह होना चाहिए कि पहले उस आदमी के मिजाज को भांप लें कि जिसे आप शिक्षित करने जा रहे हैं क्या वह आपसे दोस्ती करने को तैयार है या आपसे घनिस्ठ संबंध बनाने को राजी है। ये वे महत्वपूर्ण बातें हैं जिनको किसी इंसान को अपनाना चाहिए। उसके अलावा जो भी उचित तरीके हो सकते हैं। वह सब इस्लाम की ओर किसी को बुलाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं ताकि उसका दिल जीता जा सके।
[ II]
हमें उस आदमी के बारे में पहले यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उसके ईमान का स्तर क्या है, वह धर्म के बारे में कितना जानता है और उसकी तहजीब और तरीके क्या हैं। ऐसा करके हम जिस व्यक्ति से मुखातिब होने जा रहे हैं उसे सहज बनाए रख सकते हैं और अपनी बातों से भयभीत करने से बचा सकते हैं क्योंक अगर आपने ऐसा नहीं किया तो उसे इतना डरा देंगे कि दुबारा आपके पास आने से कतराएगा और धर्म के प्रति उसके अंदर दूरी पैदा होगी। उदाहरण के तौर पर, अगर हम कोई इस्लामी किताब उनके सामने पढ़ते हैं या कुरआन का पाठ उसके सामने करते हैं तो आप ऐसा करके उसे मजहब से और दूर करने का कारण बन रहे हैं, बेहतर यही है कि आप उसके सामने कुछ न पढ़े यहां तक कि कुरआन भी। किताबें इस प्रकार की होनी चाहिए कि सामने वाले के लिए को जीत सके और उनके अंदर और जानने की उत्सुकता जगा सके। अगर इस प्रकार की सामग्री का इस्तेमाल नहीं किया जाता तो एक प्रकार से अप्रत्यक्ष रूप से हम इस्लाम को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।
अल्लाह कोलोस्ट्र अता करता है, एक दूध की तरह का पदार्थ जो जन्म देने वाली मां को बच्चे होने के कुछ दिनों बाद तक आता रहता हे और उसके बच्चे के लिए यह बेहद उपयोगी माना जाता है। इसमें बीमारी से लड़ने की अपार क्षमता होती है। धीरे धीरे यह दूध अपने शुद्ध रूप में परिवर्तित होता जाता है, जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है। प्रकृति के इस नियम को निश्चित रूप से आध्यात्मिक एवं नैतिक ऊर्जा प्रदान करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। अल्लाह जो कुछ अपने प्राकृतिक नियम के द्वारा अता करता है उस पर विचार करना चाहिए, बेहद बारीकी के साथ और हमें अपने कार्य को उसी के अनुरूप संचालित करने की कोशिश करनी चाहिए। कभी-कभी इस समन्वय की हमारे अंदर सारी कमी दिखाई देती है और जो कुछ इस नीयत से कहा जाता है कि किसी का भला हो जाए और आपकी बात प्रभावकारी नहीं रह जाती। इसलिए कोई भी बात कहने से पहले हमें संबोधित किए जाने वाले व्यक्ति की समझ और उसके ज्ञान के बारे में जरूर अंदाजा लगा लेना चाहिए। इसलिए सईद नुर्सी ने फरमाया कि हम शेरों को घास नहीं देते और न घोड़ों को गोश्त।
[ III ]
संबोधित किए जाने वाले व्यक्ति का विश्वास और आदर को प्राप्त करना बेहद जरूरी होता है। वह आप पर इस प्रकार विश्वास करने लगे कि आपकी मुहब्बत उसके अपने करीबी दोस्तों से अधिक मूल्यवान लगने लगे और आपके रिश्ते को वह अधिक अहमीयत दे और ऐसा केवल वह अल्लाह के लिए करे। फिर तो अवश्य ही इसका असर किसी व्यक्ति के दिल पर होगा। अगर उसे सख्त काम भी करने पड़े तो उसे उसको करने के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि दूसरों को उसाके किए काम की बदौलत आराम और खुशी मिल सके। यहां तक कि उसको पहुंचने वाली पर तकलीफ उसके सारे सुखों पर भारी पड़े और उसी को वह पसंद करे। ऐसा तभी हो सकता है कि जब आप पर पूरा विश्वास करे।
यहां एक उत्तम उदाहरणय खुशी के युग से बयान किया जा रहा है। उतबा इब्ने वलीद मक्का में सबसे अमीर लोगों में शामिल था और इस्लाम का वह कट्टर दुश्मन मानाप जाता था। इसलिए उसे अपने कबीले के सबसे शैतान और बदमाश व्यक्ति के तोर पर जाना जाता था। वह सारी शैतानियों में शामिल रहा करता था। लेकिन खुशकिस्मती से उसके घर में एक भाग्यवान इंसान की आमद हुई वह उसके जैसा बिल्कुल न था। यह उसका बेटा हुदैफा था, जिसने अल्लाह के नबी स.व.अ. के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया था और उनका पूरी तरह वफादार बन गया था और इसके लिए उसने दुनिया की बेहतरीन से बेहतरीन चीज की कुर्बानी दे दी थी जो उसके पिता एवं उसके परिवार की ओर से उसे देने की पेशकश की गई थी ताकि वह मुहम्मद स.अ.व. का साथ छोड़ दे। लेकिन हुदैफा का ईमान इतना पुख्ता था कि वह इन चीजों से विचलित होने वाले नहीं थे। उनके सामने मिसाल यह थी कि आखिर पैगम्बर मुहम्मद को मक्का के सरदारों ने जब इस बात की पेशकश की कि वह अपना धर्म फैलाना छोड़ दे तो हम हर तरह की नेमतों से आपको मालामाल कर देंगे, तो उनका जवाब क्या था? उन्होंने कहा था, “अगर तुम एक हाथ में मेरे सूरज रख दो और बायें हाथ में चांद ताकि मैं अपना दीन छोड़ दूं तो जब तक अल्लाह मुझे इस काम में कामयाब नहीं कर दे मैं इसे छोड़ने वाला नहीं हूं।”13 यह बात इस प्रभावपी तरीके से कही गई थी कि हुदैफा जैसे लोगों के दिल में गहरे तक उतर गई। एक पैगम्बर और मार्गदर्शक के तौर पर पैगम्बर ने लोगों का दिल इस प्रकार जीतने का काम किया जब उनका नाम लिया जाता था तो लो अपने घर परिवार, नाते रिश्तेदार, मां बाप सभी को भूल जाते थे और केवल उनकी याद तथा उनकी बात दिल में बची रहती थी।
बीते दिनों से लेकर आज तक आध्यात्मिक मार्गदर्शन के तरीके में कोई फर्क नहीं आया है। केवल समय और लोग बदल जाते हैं मगर बाकी बातें वही रहती हैं। इसलिए जो लोग दीन के मामले में लोगों के लिए पथप्रदर्शक की भूमिका निभाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वह पैगम्बर मुहम्मद का इस मामले में अनुसरण करें। नही ंतो जो कुछ आप कहेंगे व हवा में ही रह जाएगा और उसका स्वागत ठीक प्रकार से नहीं हो पाएगा। सारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम किस प्रकार सामने वाले के लिए दिल में गहरे तक उतर जाएं और उनको अपनी बातों से राजी कर लें। यह बात अवश्य याद रखने की है कि अल्लाह के नबी ने अपने सहाबियों के दिल में अपनी जगह स्वयं नहीं बनाई होती तो फिर वह उनके साथ बदर की लड़ाई में न जाते। यह इस्लाम का पहला युद्ध था और हालात भी बेहद मुखालिफ थे और सबसे बड़ी दुविधा की बात यह थी कि जिनसे वह लड़ने जा रहे थे वे या तो उनके बाप थे, रिश्तेदार थे, भाई थे या चाचा थे। लेकिन एक बार जब पैगम्बर स.अ.व. की ओर से उन्हें युद्ध में कूच करने को आदेश हुआ तो उन्होंने उस बात को महत्व दिए बजाए इसके कि अपने रिश्तेदारों एवं प्रिय लोगों के बीच में बैठे रह जाते।
कभी-कभी पैगम्बर ने मोमिनों के दिल में यह बात बिठाई कि वे हर काम में अल्लाह और उसके नबी को महत्व दें। काब इब्ने मालिक की घटना में हमें एक उत्तम उदाहरण देखने को मिलता है। जब वह तबूक की जंग में शरीक न हो सके तो उन्होंने स्वयं यह कहानी और अपना अनुभव पैगम्बर मुहम्मद से बयान किया। पैगम्बर मुहम्मद ने उन्हें समझाते हुए फरमायाः “क्या तुमने मुझसे अक़बा में इस बात का वायदा नहीं किया था कि आप जहां कहीं भी जाएंगे मैं आपके साथ चलूंगा?” तो उन्होंने जवाब दियाः “या अल्लाह के नबी अगर मेरा मामला किसी दुनियादार आदमी के साथ होता, तो मैं कोई बेहतर बहाना बना कर उसकी खुशी हासिल कर लेता क्योंकि अल्लाह ने मुझ चटखारेदार अंदाज से बोलने की ताकत दी है। लेकिन आनके मामेल में मुझे पूरी तरह मालूम है कि अगर मैं गलत बहाने बना कर आपको खुश रकने की कोशिश करता तो अल्लाह मुझसे नाराज होता। हमने सब बोल कर आपको जरूर नाराज किया है लेकिन मुझे उम्मीद है कि जल्दी ही आपकी नराजगी मुझसे दूर कर देगा। इसलिए मैंने सच बोलने को पसंद किया। खुदा की कसम, मेरे पासा कोइ बहाना नहीं हैं। मैं आज से पहले कभी इतनी अच्छी हालत में नहीं था जितना कि अब था।” यह उनकी ईमानदारी ही थी कि अल्लाह ने उन्हें अंततः माफ कर दिया।14
एक मार्गदर्शक को चाहिए कि वह किसी के दिल में इस प्रकार उतरे कि वह बताए तरीके पर अमल करने के लिए तैयार हो जाए। लेकिन जो वह दूसरों को किसी काम को से मना करे तो उसे किसी हाल में खुद उस पर अमल नहीं करना चाहिए। कुरआन के अनुसार, फिरऔन, नमरूद और शद्दाद उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो केवल अपने लिए कोई बात सोचते हैं ओर करने के लिए कहते हैं। जबकि पैग़म्बर ने कोई भी बात कही तो अल्लाह के लिए कही या फिर अपने समुदाय के हित की खातिर कही। जो लोग एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक की भूमिका निभाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वह इस बिंदु को ध्यान में रखे।
[ IV ]
हमारे पास इस्लाम और इस्लामी परंपरा की अच्छी जानकारी होनी चाहिए। केवल दिमाग में जो आए वह नहीं बोल देना चाहिए। पैगम्बर मुहम्मद स.अ.व. ने फरमाया कि हम तुम्हारे पास दो स्रोत छोड़े जा रहे हैं जिसका पालन करना हमारे लिए बेहद जरूरी है और जिसके बल पर हम अंधेरे और रौशनी में फर्क कर सकते हैं, गलत और सही को जान सकते हैं और वे दो महत्वपूर्ण स्रोत हैं कुरआन और सुन्नत यानि हदीसें।15 इसलिए जब भी कोई चीज इस्लाम के हवाले से पेश की जाए तो चाहिए कि वह बात इन स्रोतों के सिद्धांतो का पालन करते हुए की जाए और चाहिए कि पहले इन विषयों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लें। इंसान को चाहिए कि वह इस्लामी मामलों में अपने ज्ञान को खूब पुख्ता कर लें। केवल इसलिए बहस व मुबाहसा में नहीं पड़ जाना चाहिए कि दूसरों का मुंह बंद कर सकें केवल अपने तर्क के आधार पर। जो कुछ हम किसी दूसरे कहें उसका पहली तरह हम खुद समझ रहे हों ताकि जिससे वह बात कही जाए उसे भी अच्छी तरह समझ में आ जाए और मानने में दुशवारी न हो और उसका आध्यात्मिक विकास हो। जैसा कि बदीउज्जमां ने एक मिसाल के जरिये इस बात को समझाने की कोशिश की है, एक आध्यात्मिक गुरू को एक भेड़ के समान होना चाहिए, जो न केवल चारे को चबा कर अपना पेट भरता है बल्कि उसे दूध में तब्दील कर देता है। इसलिए हमें दूसरों को ऐसी खुराक देनी चाहिए जो उसके पेट को पूरी तरह भरने का काम करे, हमें चिड़ियों को समान नहीं हो जाना चाहिए जो आधा अधूरी खाना खाती हैं और फिर उगले हुए खाने को को अपने चूजों के मुंह में डाल देती है।16 अगर हम इस काम को अच्छी तरह करते हैं, तो हम दूसरों के दिमाग एवं रूह दोनों को अपनी बात से कायल कर सकते हैं और लोगों को अल्लाह की ओर बुलाने के लिए बेहतर के लिए बेहतर तरीके का इस्तेमाल कीजिए ताकि यह प्रभावकारी सिद्ध हो।
ऐसा तभी संभव हो सकता है जब कोई आदमी खूब पढ़े लिखे और अपने ज्ञान में विस्तार करे और अपने को अधिक सुसंस्कृति बनाए। इसलिए जिन लोगों को इस प्रकार के काम की जिम्मेदारी सौंपी जाए उन्हें इतना समय भी दिया जाए या उनके लिए नियत किया जाए कि वे कुछ घंटे अध्ययन में बिताएं। जिन लोगों का ज्ञान आधा अधूरा रहता है उनके पास दूसरों को बताने के लिए अधिक कुछ नहीं होता और न ही किसी को अपनी बात से कायल कर करते हैं। इसलिए एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाने वाले शख्स का ज्ञान पुख्ता और गहरा होना चाहिए। मेरा अपना ख्याल है कि जो लोग अधिक सुसंस्कृति नहीं होते उनके लिए किसी दूसरे को देने के लिए अधिक कुछ नहीं होता है।
इसलिए बार-बार मैं इस बात पर बल देता हूं और देता रहा हूं कि जो लोग दूसरों को अल्लाह के दीन की ओर बुलाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि अपने ज्ञान में विस्तार करते रहें। अज्ञानी आदमी किसी से अज्ञान की बातें ही करेगा और खासतौर पर उन लोगों के समाने उसकी बात करगर साबित नहीं होंगी जो अधिक हठी एवं गुस्से वाले हैं और किसी अच्छी बात को सुनने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते। अगर हमने अपनी ओर से जोर जबरदस्ती से काम लिया तो उसका असर भी बेमानी साबित होगा और जो फायदा पहुंचने वाला हो सकता है वह भी नहीं पहुंच पाएगा।
[ V ]
सभी काम पूरी ईमानदारी एवं लगन से किए जाने चाहिए। उनके सामने बस एक ही मकसद हो कि ऐसा करके हम अल्लाह की खुशनूदी हासिल कर लेंगे और बाकी सारे काम इसी उद्देश्य को सामने रख कर करने चाहिए। जो भी तरीके अख्तियार किए जाएं या नीति अपनाई जाए उसका आधार भी अल्लाह की रज़ा और खुशी हासिल करना ही हो। अगर हमारा यकीन इस बात में पुख्ता है कि अल्लाह की खुशी हमें ऐसा काम कर के हासिल होगी तो फिर हम उस काम में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेंगे और नहीं तो हमारा उसमें मन नहीं लगेगा और हम पीछे हट जाएंगे और अगर इस बात को सामने रखेंगे तो यह शंका भी नहीं रहेगी कि हम किसी को गुमराह कर पाएंगे।
पैग़म्बर ऐसे बेशुमार लोग गुजरे हैं जिन्हें लगता था कि उनकी जुबान से कोई गलत बात निकल गई है तो अल्लाह के खौफ से सजदे में गिर पड़ते थे और माफी मांगते थे। उदाहरण के तौर पर, जब उमर बिन अब्दुल अजीज ने यह देखा कि उन्होंने किस प्रकार बेहद उत्तम तरीके से एक सरकारी खत लिखा है और उसमें उम्दा भाषा का इस्तेमाल किया है और उन्हें लगा कि उनके दिल में उस खत को लेकर गर्व की भावना पैदा होगी तो उन्होंने तुरंत उसे फाड़ दिया और दूसरा खत लिखने बैठ गए। इस्लाम इसी प्रकार की ईमानदारी और नीयत की शुद्धता की बात करता है। कोई भी बात ऐसी की जाए या कही जाए जिसका मकसद अपने आपको खुश करना न हो बल्कि वह अल्लाह की रज़ा के लिए हो। महान लोगों ने इसी बात को सिद्धांत का रूप दे दिया। सारांश के तौर पर यही कह सकते हैं कि ऐसा जो भी काम करें तो उसमें पूरी ईमानदारी और लगन शामिल हो। जो भी बात किसी को बताई जाए उसे पूरे विस्तार के साथ प्रभावी ढंग से बताया जाए। हमें किी को डांट डपटना नहीं चाहिए और यह ध्यान रहना चाहिए कि कहीं हमारी कोशिशों को उलटे कयामत के दिन हमारे मुंह पर वापस तो नहीं फेंक दिया जाएगा ईमानदारी का तरीका जरूर अख्तियार करें।
हम कई हदीसों में ईमानदारी के महत्व को पाते हैं और जमीन और कायनात को कायम करने का मकसद भी इंसाफ को कायम करना बताया गया है।18
कुरआन में भी पैग़म्बरों के बारे में जो वर्णन किया गया है उसमें इस महत्वपूर्ण बिंदु को बहुत महत्व दिया गया है। कुरआन मुख़लिस शब्द का इस्तेमाल करता है यानि वह अपने इरादे में बेहद नेक हैं। (मरियम 19:51) हज़रत मूसा और हज़रत मरियम की जिंदगी का मकसद केवल अल्लाह को राजी करना था। इस प्रकार लोगों को ईमानदारी का सबक दिया गया है। हज़रत इब्राहीम जिनकी ईमानदारी और लगन उच्च कोटि की थी, अपने खिलाफ मुखालिफ हालात में भी किसी शक व शुब्हा का शिकार न हुए यहां तक कि उन्होंने सख्त परेशानी के आलम में भी फरिश्तों की मदद लेने से इंकार कर दिया और केवल अल्लाह का सहारा हासिल किया जो हर चीज को देखने वाला और जानने वाला है। उन्होंने बस इतना कहा कि “मेरे लिए अल्लाह ही काफी है।”19 उनके लिए अल्लाह की खुशी हासिल करना परम् उद्देश्य था। उन्हें जब सजा दी गई तब भी उन्होंने किसी और का सहारा न ढूंढा और न ही यह बात उनके मन में आई। यही कारण है कि उन्हें खलील यानि अल्लाह के दोस्त होने के खिताब से नवाजा गया।20 ऐसी दोस्ती तभी संभव है जब किसी के दिल में गहरी श्रद्धा एवं सच्ची लगन हो।
एक दिन जब पैग़म्बर को “ऐ अल्लाह के दोस्त” की पदवी देकर नवाजा गया तो आपने तुरंत जवाब दियाः “नहीं, अल्लाह के दोस्त तो केवल हजरत इब्राहीम अ.स.व. थे।”21 साथ ही एक एक दिन जब उन्हें सैयदना कह कर बुलाया गया यानि हमारे मालिक तो उन्होंने उसके जवाब में भी यही फरमाया कि “सैयदना केवल इब्राहीम हैं।”22 यह ठीक ही कहा गया है कि केवल एक जौहरी ही हीरे की कद्र जान सकता है। इसलिए जो लोग पैग़म्बर के काम को आगे बढ़ाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि ईमानदारी और सच्ची लगन को अपना तरीका बनाए। कुरआन ने हमें अनके ऐसे पैग़म्बर के वाक्यात बताए हैं जिन्होंने ईमानदारी की अपनी एक मिसाल कायम की थी।23 इसलिए मुझे लगता है कि इस बात को बेहतर तौर पर समझने के लिए हमें कुरआन का गहराई से अध्ययन करते रहना चाहिए।
[ VI ]
मार्गदर्शक ने इल्म की चाहे जो भी सीमा तय की हो, उसका दिल धार्मिक विज्ञान से सुसज्जित होना चाहिए और विज्ञान से उसका दिमाग सभ्य एवं सकारात्मक। अपने ज्ञान एवं सलाहियतों का उच्च इस्तेमाल करके उसे अपने स्वनिरीक्षण को लेकर खूब बेहतर बन जाना चाहिए और फिर अल्लाह ने उसको जा सलाहियतें दी हैं उसे अल्लाह के नाम पर और बेहतर बनाने की कोशिश करते रहना चाहिए। जो भी बातें ऊपर बताई गई हैं उन सब के लिए पूरी ईमानदारी और लगन की जरूरत है।
जो लोग दूसरों को धर्म की ओर बुलाने का काम करते हैं उन्हें अपने बुलाने की प्रक्रिया को भोंडा नहीं बना देना चाहिए और उनके अंदर यह घमंड नहीं होना चाहिए कि वह दूसरों को प्रभावित करने क सलाहियात रखते हैं या इस बात की शैखी नहीं बखारना चाहिए कि उनके अनुयायियों की संख्या सैकड़ों या हजारों में है। बल्कि उन्हे चाहिए कि वह हमेशा अपना मूल्यांकन करते रहें कि क्या वे जो कुछ कर रहे हैं उससे अल्लाह राजी हो जाएगा। स्व आलोचना, स्व निरीक्षण और स्व पर्यवेक्षण आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए बेहद आवश्यक है।
हम जो कुछ कर रहे हैं आखिर उसका क्या कारण है? इसको हमेशा जांचते और परखते रहने की जरूरत है अगर कोई भी चीज हमारे नफ़्स के साथ जुड़ी हो, तो हमें उसे तुरंत छोड़ देना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, आप किसी समूह को संबोधित कर रहे हैं और उन्हें कुछ बता रहे हैं, हालांकि यह काम अपने आप में बहुत अच्छा है, लेकिन अचानक जब आपके अंदर यह भावना पैदा होने लगती है कि आप कितनी खूबसूरती से तक़रीर कर रहे हैं बजाए इस पर आपका ध्यान हो कि आप जो बातें बता रहे हैं वे कितनी महत्वपूर्ण हैं तो वही तक़रीर बेमानी हो कर रह जाएगी। इसलिए अगर ऐसे मौके पर आप किसी किताब का पाठ कर रहे हैं तो उसे किसी और के हाथ में दे दीजिए। आपका अंदाज ऐसा होना चाहिए कि जुबान से आपकी बात खुद ब खुद निकल रही हो। तभी आपको इस बात का भी एहसास होना चाहिए कि आखिर किसने आपको इस प्रकार बोलने की शक्ति प्रदान की है और आपको अपनी तुच्छता का एहसास होना चाहिए कि अगर अल्लाह ने यह सलाहियत आपको न बख्शी होती तो आप कुछ नहीं कर पाते। अगर आपको यह लगे कि आप जो कुछ बोल रहे हैं उसमें आपकी सलाहियत का भी दखल है तो आपको तुरंत मेंबर यानि तकरीर करने के स्थान से उतर आना चाहिए। क्योंकि अगर कोई इंसान अच्छी तकरीर करता है तो उसमें उसके लिए फितना भी छुपा हुआ है और उसे उस समय अल्लाह की पनाह लेनी चाहिए। दुनिया में ऐसे बेशुमार प्रवचनकर्ता हुए हैं जिनके इर्द गिर्द लाखों का मजमा होता रहा है लेकिन उनमें बहुत कम ही लोग हैं जिनके बारे में उनके अनुयायी अच्छी भाषा में उन्हें याद करते हैं और उनसे एक प्रकार से नफरत करते हैं कि कैसे उसने उन्हें अपनी चिकनी चुपड़ी बातों में फंसा रखा था। आपको चाहिए कि आप कुरआन का तन्हाई में पाठ करते रहें और ऐसा करते समय अपनी आवाज को भी सुंदर एवं मधुर बनाएं। हालांकि, यह कुरआन है, मगर ऐसा कर के हो सकता है कि कोई आदमी किसी दूसरे को प्रभावित करने के चक्कर में अधिक पड़ जाए बजाए इसके कि दिल से सवाब की नीयत से तिलावत करे। अगर आपके दिल में इस तरह की बात आए तो आपको इस प्रकार दुआ करनी चाहिएः “या अल्लाह मैंने आपके लिए ही इस कुरआन की तिलावत शुरू की है और मैं आपके नाम से ही यह काम करना बंद कर रहा हूं।” इस प्रकार हम अपना स्वनिरीक्षण कर सकते हैं कि आखिर जो आवाज हमारी जुबान से आ रही है उसका संबंध क्या हमारे दिल से भी है। इंसान को पता होना चाहिए कि वह अपने नफ़्स की शरारतों से किस प्रकार मुकाबला करे और ऐसा करते समय भी ध्यान यही रहे कि इसमें अल्लाह की खुशी हासिल करना उसका मुख्य उद्देश्य है।
हो सकता है कि आपकी यह अवस्था कुछ लोगों को असमान्य सी प्रतीत हो, यानि तिलावत करते समय अपने सिर को हिलाना, अपने दुख को अधिक तीव्रता से प्रकट करना, सजदे में गिरना, दुआ मांगना और गिड़गिड़ाना इत्यादि। लेकिन अगर आप ऐसा करते रहेंगे तो आपके अंदर अपने आप सच्ची लगन पैदा होती जाएगी और फिर उसके बाद आप जो कुछ भी करेंगे वह आराम से करेंगे और उसमें केवल अल्लाह की रज़ा हासिल करना मकसद होगा। अल्लाह हमारे अंदर सच्ची लगन और इबादत की शुद्धता पैदा करे और ऐसा हमारी जरूरतों का ध्यान रख कर करे न कि हमारी इच्छा के अनुरूप।
[ VII ]
अगर हमारा काम किसी को कुछ अजीब लगे तो आपको कहना चाहिए कि अल्लाह की खुशी हमारे लिए सर्वोपरि है। दूसरों को भी ऐसा काम करने का पूरे दिल से मौका देना चाहिए। हो सकता है कि कोई व्यक्ति आपके प्रति व्यक्तिगत कारणों से प्रतिक्रिया व्यक्त करे और रद्देअमल भी अनुकूल न हो। लेकिन ऐसे हालात में अगर हम अपनी जिद्द पर कायम रहेंगे तो दूसरे लोग आपकी बातों से विमुख ही होंगे बजाए इसके कि उसे स्वीकार करें। अगर दूसरे लोग इस प्रकार से हक़ को कबूल न करके अधिक नुकसान के भागी बनते हैं तो आपने अपने तरीके से उसे हक़ से दूर करके अधिक गुनाह का काम किया है। उसका हल बेहद आसान है। उसके लिए चाहिए कि आप किसी और को उस व्यक्ति से बात करने का मौका दें। हो सकता है कि किसी और को उस व्यक्ति से बात करने का मौका दें। हो सकता है कि किसी और के कहने पर वह उस बात को स्वीकार कर ले और आपको भी अप्रत्यक्ष तौर पर उसका सवाब हासिल होगा। इस बात को भी बारीकी से समझना चाहिए कि आपकी ख्वाहिश और किसी के उस काम को करने में बहुत फर्क है और खुशी से इसे स्वीकार करना चाहिए। हमें हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि आप जो कुछ करें उसमें आपके नफ़्स की खुशी दरकार नहीं है बल्कि यह काम आप अल्लाह की खुशी के लिए कर रहे हैं। यह निस्संदेह बड़ी हिम्मत का काम है और मकसद की दृष्टि से उत्तम है क्योंकि आप दूसरों के हित के लिए ऐसा कर रहे हैं। इसे बड़ी उदारता मानी जाएगी।
सहाबा-एकराम का किसी पद की इच्छा व्यक्त करना पैग़म्बर मुहम्मद की नजर में बेहतर नहीं माना जाता था।24 उसी प्रकार किसी के अंदर यह इच्छा रहे कि वह बड़े समूह को संबोधित करे और वाहवाही हासिल करे तो यह भी अच्छी बात नहीं है। पैग़म्बर मुहम्मद ने हमेशा यह काम उन लोगों के हवाले किया जो उसके लिए पूरी तरह योग्य थे, ज्ञानी थे और उस काम को करने की पूरी काबलियत रखते थे। इसी कारण से चाहिए कि लोग आपस में मिलजुल कर सावधानी और विवेक से तय करें कि किसे तकरीर करना चाहिए और उसके सामने शर्तें भी रखनी चाहिए और उसे श्रोताओं के बीच रह कर कभी असावधानी महसूस नहीं करनी चाहिए।
[ VIII ]
जब हमारा सामना किसी ऐसी समस्या या प्रश्न से होता है जिसके बारे में हमें कोई बात जानकारी नहीं होती, तो हमें खुशी से यह कहना चाहिए, “मुझे इस बात की जानकारी नहीं है।” यहां भी हमारे लिए उत्तम उदाहरण स्वयं अपने प्यारे नबी हैं। कुछ यहूदी एक बार उनसे बुरे इरादे के साथ उनके पास आए और पूछा कि आप बताईए कि रूह यानि आत्मा क्या है? उनका मकसद बस एक ही था कि लोगों के मन में उनकी पैग़म्बर को लेकर शक व शुब्हा पैदा करें। चूंकि अल्लाह के नबी के पास इस विषय पर कोई आयत नाजिल नहीं हुई थी इसलिए आप खामोश रहे लेकिन बाद में जब उन्हें इस बात की जानकारी दी गई जो इस प्रकार थीः रूह अल्लाह के हुक्स से आती है और तुम्हें जो ज्ञान दिया गया है वह बहुत थोड़ा है। (इसरा 17:85) पैग़म्बर का पहली बार खामोशी अख्तियार कर लेना और बाद में उसका जवाद देना, जब उन पर कुरआन की उपयुक्त आयत नाजिल हुई, तो उसका प्रभाव और अधिक बढ़ गया और जब यहूदी उनसे जवाब तलब करने के लिए आए तो वह जवाब सुन कर खामोश रह गए। उस समय पैग़म्बर स.अ.व. ने यह नहीं कहा कि “मैं जानता हूं।” कोई जरूरी नहीं है कि हर प्रश्न का जवाब हर समय किसी को आता ही हो। उनके इस काम में हमारे लिए बहुत बड़ा सबक है।
जब एक बार फरिश्तों के सरदार हज़रत जिब्रील एक यात्री की शक्ल में उनके पास आए और उनके पास आकर पूछा कि बताईए कि कयामत कब कायम होगी तो पैग़म्बर ने जवाब दिया, “जिससे पूछा गया है वह पूछने वाले से ज्यादा नहीं जानता।”25 इससे बेहतर उदाहरण इस बात के लिए हमारे सामने और कोई नहीं हो सकता कि जिस सवाल का जवाब हम न जानते हों तो उसको लेकर खामोश रह जाना ही बेहतर है।
एक बार जब इमाम अबू युसूफ से एक साथ सौ प्रश्न पूछे गए तो उन्होंने उसमें से केवल 60 प्रश्नों का जवाब दिया और फरमाया, “कि बाकी प्रश्नों के जवाब मैं नहीं जानता।” जब लोगों ने उनसे कहा कि हम आपको आपके काम के बदले तनख्वाह देते हैं फिर भी आप ऐसा क्यों कहते हैं कि आपको हमारे बाकी प्रश्नों का जवाब मालूम नहीं है तो इमाम अबू यूसुफ ने कहा, “आप मुझे उस चीज के लिए पैसे दे रहे हैं जो मैं जानता हूं और अगर आप उस बात के लिए पैसे दे रहे हैं जो मैं नहीं जानता हूं फिर तो परी दुनिया भी उसके लिए नाकाफी होगी।” इमाम अबू यूसुफ उस समय मुख्य काज़ी के पद पर नियुक्त थे। एक ऐसे ही हालात में इमाम मालिक ने केवल तीन प्रश्नों का जवाब दिया जबकि उनसे तीस प्रश्न पूछे गए थे।
यह उदाहरण इस बात को समझाने के लिए काफी है कि जो लोग कमाल के दर्जे का इल्म रखते थे और जिनकी बड़ी इज्जत और प्रतिष्ठा थी उनके ज्ञान की बदौलत जो कुछ उनसे पूछा गया उन सभी प्रश्नों का जवाब नहीं दिया। उन्होंने जवाब में बस इतना ही कहा, “मैं नहीं जानता।” हमें भी चाहिए कि जिस बात की जानकारी न हो उसके बारे में अपनी हठधर्मी जाहिर न करें। लेकिन हमें इस बात को वहीं नहीं छोड़ देना चाहिए बल्कि उन प्रश्नों के जवाब ढूंढने में लग जाना चाहिए और अपने अज्ञान को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। यह भी हो सकता है कि जिनके हम संपर्क स्थापित करें वह जानकार हों और हम उन पर विश्वास भी करें, ऐसे इंसान के पास ही अपने प्रश्न लेकर जाना चाहिए। इस प्रकार न केवल हम खुद सीखते हैं बल्कि दूसरों के सीखने के लिए भी राहें आसान करते हैं।
[ IX ]
जिन लोगों को उचित मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है उनको चाहिए कि उदारतापूर्ण व्यवहार करें। उनका हाथ, दिल खुला होना चाहिए और उनमें खूब दयालुता पाई जानी चाहिए। अल्लाह के रास्ते में काम करने के लिए अगर उनके पास धन दौलत है तो उसे खर्च करने के लिए भी पूरी उदारता से तैयार रहना चाहिए। दूसरों का दिल जीतने के लिए आप अपने इस गुण का बेहतर तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। जब भी ऐसी उदारता की बात सामने आती है तो मेरे दिमाग में हज़रत खदीजा का नाम आता है। वह पैग़म्बर मुहम्मद की पहली बीवी थीं। उनका जन्म उस समय हुआ था जब पैग़म्बर मुहम्मद पैग़म्बर बने भी नहीं थे और मृत्यु भी उनके सामने ही हुई थी। जब उनकी मुलाकात मुस्तक़बिल के पैग़म्बर से हुई थी तो उस समय वह एक नेक और धनी व्यापारी महिला के तौर पर विख्यात थीं, उनका व्यापारिक काफिला दूसरे मुल्कों तक जाता था जबकि उनके मुकाबले में पैग़म्बर मुहम्मद के पास कोई धन दौलत नहीं थी। फिर इस दूरंदेश महिला ने उनके अंदर की महान संभावनाओं का पहचान लिया और उनके सामने उनसे शादी का प्रस्ताव रखा। उनकी प्रकृति भी ऐसी थी कि वह पैग़म्बर की बीवी बनने के लिए पूरी तरह योग्य थीं। जब पैग़म्बर मुहम्मद को अंत में पैग़म्बरी दी गई, तो बिना किसी शंका के उन्होंने अपनी पूरी जायदाद उनकी खिदमत में लाकर रख दी। जब मक्का के काफिरों ने मुसलमानों का आर्थिक बाइकाट किया तो उस समय तक हज़रत खदीजा के पास कुछ नहीं बचा था। कई बार ऐसा भी होता था कि घर में खाने के लिए कुछ नहीं होता था और भूख के मारे उन पर बेहोशी आ जाती थी। उस समय उम्मुल मोमिनीन यानि पूरे मुसलमानों की मां बीमार पड़ गई और इलाज के लिए भी कोई सहूलित मुहैया नहीं थी और इस प्रकार उनका इंतेकाल हो गया। उदारता की इससे बेहतर मिसाल और क्या दी जा सकती है कि इंसान अपना सब कुछ अंततः खर्च कर डालता है।
हज़रत अबू बकर मक्का के सबसे अमीर व्यापारियों में से एक थे। लेकिन उन्होंने भी कमाल के दर्जे की उदारता का सबूत देते हुए अपनी सारी दौलत अल्लाह के रास्ते में खर्च कर दी, उनके और उनके परिवार के लिए कुछ नहीं बचा। वह अपने बूढ़े पिता का ध्यान बांटने के लिए रूपये की थैली में कंकड़ पत्थर रख दिया करते थे और उनके पास जो सोने की अशरफियां थीं उसे अल्लाह के रास्ते में खर्च कर देते थे। यही कारण है कि जब उन्हें खलीफा नियुक्त किया गया तो वह उस समय इतने गरीब थे कि उन्हें अपने गुजारे के लिए दूसरों की भेड़ बकरियों के दूध निकालने पड़ते थे।26
हज़रत उमर और उनका पूरा परिवार कुछ खजूरों पर अपना गुजारा किया करता था और यही हाल मदीना के दूसरे गरीब मुसलमानों का था यह इस बात की ओर संकेत करता था कि वे लोग अपनी सारी जायदाद किस प्रकार इस्लाम के रास्ते में खर्च कर डालते थे।27
सहाबा-एकराम अल्लाह के रास्ते में खर्च करने के मामले में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा किया करते थे। उनकी सच्ची उदारता ने कितने लोगों का दिल जीतने का काम किया था और बर्ताव को देख कर अनगिनत संख्या में लोग मुसलमान हुए थे। उन सारे मामलों में उनके सामने केवल पैग़म्बर मुहम्मद की मिसाल थी। एक दिन एक आदमी जो इस्लाम कबूल करने के बिल्कुल करीब था उनके कबीले के लोगों के पास गया और कहा, “ऐ मेरे लोगों, जाओ और उस आदमी की ताबेदारी कबूल कर लो क्योंकि वे अल्लाह के पैग़म्बर हैं। अगर वे पैग़म्बर नहीं होते, तो फिर वे इतने उदार भी न होते और अपने गुजारे के लिए हर समय भयभीत रहते। यह आदमी तो जिसको जिस चीज की जरूरत होती है उसे तुरंत दे देता है।”28
हर आध्यात्मिक गुरू चाहे वह युवा हो या बूढ़ा, उसे चाहिए कि लोगों का दिल इसी प्रकार से जीतने की कोशिश करे। अगर कोई इंसान अपनी सारी जायदाद खर्च करके किसी का दिल जीतने में कामयाब हो जाता है तो उस आदमी के बारे में यही कहा जाएगा कि उसनके कुछ नहीं खोया बल्कि उससे अधिक पाया है। ऐसे ही उदार लोगों के लिए जन्नत के दरवाजे खोले जाएंगे।29 इसलिए आदकी को चाहिए कि दुनिया में ऐसा ही काम करे जिससे मरने के बाद उसके लिए जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाएं। अगर आपने किसी के साथ इस दुनिया में उदारता का व्यवहार किया है तो फिर उन्हें एक दिन ऐसी पेशकश की जाएगी कि वह इंसानों के द्वारा तैयार कए गए मार्ग का अनुसरण करे या फिर कुरआन ने जिन रास्तों पर चलने का आदेश दिया है उस पर चले, फिर वे कुरआन का पालन करेगे और पैग़म्बर मुहम्मद और अल्लाह के आगे अपने को नतमस्तक कर देंगे।
जो लोग पहले जन्नत में दाखिल किए जाएंगे वह कोई विद्वान, व्याख्याता, प्रवचनकर्ता या शिक्षक नहीं होंगे बल्कि वे लोग होंगे जो चाहे बड़े या छोटे दर्जे के व्यापारी हों या आम साधारण से काम करने वाले कामगार हों, जिन्होंने अपनी दौलत चाहे जिस मात्रा में उनके पास रही हो, उसे अल्लाह के रास्ते में खर्च किया होगा और ऐसा उन्होंने पूरे खुलूस और उदारता से किया होगा। उनके सामने केवल अल्लाह की खुशी हासिल करना मकसद रहा होगा। यही लोग हैं जिन्हें उस दिन दूसरों से अलग करके कहा जाएगाः उन लोगों ने अल्लाह के रास्ते में जो चीजें खत्म होने वाली थीं उनको खर्च किया और उसके बदले में वह चीज पाई जो कभी खत्म न होगी।
[ X ]
आज हम जीवन के हर क्षेत्र में लोगों के अंदर काफी जागरूकता देख रहे हैं और पिछले बीस सालों से हमने उसका अनुभव भी किया है। पहले उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे ईमान वाले लोग बहुत मुश्किल से दिखाई देते थे लेकिन आज वे काफी नजर आते हैं। यह केवल अल्लाह की रहमत है और कुछ नहीं। फिर भी, कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्तियों का पूरा समूह इस्लाम की सेवा और उसकी रक्षा में खड़ा दिखाई देता है। ऐसा भी देखने में आया है कि जो इस्लाम के प्रति हठधर्मी का रवैया अपनाए हुए थे उनके दिल में भी नर्मी आई है और उसको स्वीकार करने के लायक समझ है। ऐसे हालात में यह जरूरी है कि हम इस्लामी कामों में नए-नए बेहतर उपायों का इस्तेमाल करें लेकिन यह ध्यान रहे कि हम इस्लाम की रूह से अपने को अलग भी न करें। नहीं तो हम अपने काम का प्रभाव खो देंगे और उसका आशा के अनुरूप परिणाम भी दिखाई नहीं देगा। हमें ऐसी अवस्था में गिरने से बचाने के लिए अल्लाह की मदद मांगनी चाहिए। हमें वैसे अवश्य ही जो आज के तक़ाजे हैं उसके अनुरूप तरीके अपनाने चाहिए। अगर हमने इस काम में कोताही और सुस्ती से काम लिया तो परिणाम भी शिथिल ही दिखाई देंगे।
सारांश के तौर पर हम कह सकते हैं कि जो आज के इस आधुनिक युग में एक आध्यात्मिक गुरू की भूमिका निभाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि आधुनिक तरीकों का पालन करें और उसी के अनुरूप चलने की कोशिश करें। जबकि दूसरे लोग ग्रहों के चक्कर लगा रहे हैं और नए-नए क्षितिज को खोज कर रहे हैं, अगर हमने भी आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो हम किसी अच्छे नतीजे पर नहीं पहुंच पाएंगे।
[ XI ]
समूह के मनोविज्ञान को समझना और लोगों को अपने विचार के दायरे में लाने के लिए उचित तरीके का इस्तेमाल करना भी बेहद जरूरी है। बहुत से लोग हैं जिन्हें आप बरसों तक समझाते रहे मगर वह आपकी बात समझ नहीं पाएंगे। उनको अपनी किसी विशेष सेवा और प्रतिष्ठानों के विकास के बारे में अवगत कराईए और उन्हें वहां लेकर जाईए कि किस प्रकार दूसरे लोग वहां बेहतर तौर पर काम कर रहे हैं, पूरी ईमानदारी एवं लगन के साथ और पूरे उत्साह के साथ, उन्हें इस बात को महसूस करने दीजिए कि एक समूह में काम करने का क्या फायदा है और आपस में मिलजुल कर काम करने से किसी काम का कितना बेहतर परिणाम सामने आता है। इस प्रकार की चीजों को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने का ज्यादा लाभ होता है बजाए इसके कि इसके बारे में केवल बातें की जाए। इसलिए जितनी भी इस्लामी सेवाएं हैं या संस्थान हैं, उन्हें चाहिए कि दूसरों के लिए अपना दरवाजा खुले दिल और मन से खुला रखें न कि किसी विशेष समूह या दल में बंधे होने का प्रमाण दें और दूसरों के लिए अपने दरवाजे बन्द कर दें। इस प्रकार लोगों के अंदर बेहतर काम करने का जज्बा पैदा किया जा सकेगा और दूसरों के साथ कंधे समूह दोनों को समान रूप से लाभी होगा।
अल्लाह का शुक्र है कि आजकल ऐसे संस्थानों की संख्या काफी है और ये मुसलमानों के दिल गरमाते और खुश करते हैं वहीं इस्लाम दुश्मनों के लिए में नाखुशी भी पैदा करते हैं।
3.4 अगर हमारा मजाक उड़ाया जा रहा हो, विशेष रूप से ऐसी हालत में जब आप इस्लाम का सच्चे दिल से अनुसरण कर रहे हों और मजाक उड़ाने का काम आपके दोस्त यार या आपका कोई हमउम्र ही कर रहा हो तो क्या करें?
नूह ने मेरे सामने किश्ती बनाना शुरू कर दियाः हर बार जब उसकी कौम के सारदार उसके पास से गुजरते तो वह उनका मजाक उड़ाते। नूह ने कहाः “अगर आज तुम हमारा मजाक उड़ाते हो, तो हम भी एक दिन तुम्हारा मजाक उड़ाएंगे जब हमारे लिए यह मौका आएगा। लेकिन जल्दी ही तुम जान लोगे कि किसी पर अल्लाह की लानत नाजिल होती जो उनको बुरी तरह पकड़ लेगी। आखिर किस पर हमेशा के लिए जिल्लत नाजिल होती है।”(हूद 11:38-9)
या अल्लाह! हमें इसस बाहर निकाल दीजिएः अगर हम फिर बुराई की ओर हुए तो हम वाकई गुनाहगार हो जाएंगे। “अल्लाह उनसे फरमाएगाः “आज मैंने तुम्हें भूला दिया और तुम मुझ से बात न करो। मेरे बंदो में से कुछ लोग तुम्हारे बीच मौजूद थे और जो दुआएं किया करते थे,” हमारे अल्लाह, हम पर ईमान लाएः आप हमें फिर माफ फरमा दीजिए और हम पर रहम फरमाईएः क्योंकि आप सबसे बेहतर तौर पर रहम करने वाल हैं।” लेकिन तुम ने उनका मजाक उड़ाता और उनके द्वारा भेजे हुए संदेशों को तुमने भुला दिया और तुम उस वक्त उन पर हंस रहे थे। मैंने उन्हें आज उनके सब्र और दृढ़ता के बदले इनामात से नवाजा है। यही वे लोग हैं जिन्होंने हकीकत में खुशियां हासिल की है।” (मोमिनून 23:197-11)
जो लोग गुनाहों में डूबे हुए थे वे मोमिनों का मजाक उड़ाया करते थे और जब वे उनके पास से गुजरते थे, तो एक दूसरे को कंखियों से देख कर मजाक उड़ानें के अंदाज में बाते किया करते थेः जब अपने लोगों के बीच में लौटते थे, तो उनका तरीका भी मजाक उड़ाने वाला ही होता था। (मुतफ्फेफीन 83:29-31)
ऊपर कुरआन की जो आयतें बयान की गई हैं उससे स्पष्ट होता है कि किस प्रकार अपनी आदत से मजबूर होकर गुनाहगार नेक लोगों का मजाक उड़ाया करते थे। यह उनके तरीके और व्यवहार का हिस्सा था। एक मुसलमान कभी ऐसा नहीं कर सकता कि वह किसी दूसरे का इस प्रकार से मजाक उड़ाएः कुरआन में स्पष्ट रूप से इसको लेकर आदेश दिया गया है, जिसमें यह कहा गया कि मुसलमानों को चाहिए कि वे किसी भी हाल में गैर मुस्लिमों के मत को लेकर मजाक न उड़ाएं भले ही गैर मुस्लिमों का रवैया उनके प्रति सौहार्दपूर्ण न हो तब भी।
जो लोग मोमिनों का मजाक उड़ाते हैं वे एक दिन स्पष्ट रूप से देख लेंगे कि वे क्या करते हैं। उन्हें कयामत के दिन इसका सही जवाब दिया जाएगा और उस दिन अपने ही किए पर पश्चाताप करेंगे और लानत मलामत करेंगे। दुनिया की इस छोटी सी जिंदगी में, किसी की ओछी बात का जवाब देने से नुकसान ही होता है और उसका कोई खास फायदा भी नहीं है। एक मोमिन के तौर पर हमसे यही अपेक्षा की जाती है कि ऐसी बातों से हम उत्तेजित हो कर पलटवार न करें और हम अपने ऊपर उपयुक्त तौर काबू बनाए रखें।
अल्लाह में यकीन करना और उसके प्रति पूरी तरह अपनी बंदगी का इज़हार करना अल्लाह की ओर से हमें दी गई बड़ी इनायतों में से एक है। अगर हमें इसकी इजाजत दी जाती तो हम गर्व से इसका इज़हार करते फिरते।
मजाक उड़ाने वाले हमारी इबादतों का मजाक उड़ाते हैं लेकिन हमारे लिए तो अल्लाह की निकटता प्राप्त करने का एक उत्तम जरिया है। वह हमारे वजू का मजाक उड़ाते हैं, जिसे अल्लाह के नबी ने इस प्रकार व्याख्यायिक किया कि वजू पांचों वक्त करना ऐसा है मानों किसी ने पांच समय नहर में चेहरा धोया और उसके चेहरे पर नूर की चमक पैदा हो रही हो। वह हमारे लिबास का मजाक उड़ाते हैं, लेकिन हमारे पैग़म्बर ने ऐसे ही लिबासों को पहनने का हुक्म दिया है और इससे हमारी इज्जत में इज़ाफा ही होता है। इनमें कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो मजाक उड़ाए जाने के काबिल हो; बल्कि यह वे तरीके हैं जिस पर अमल करके कयामत के दिन हमें बेहतरीन नेमतों से नवाजा जाएगा।
मजाक तो उन लोगों का उड़ाया जाना चाहिए जो अपने पैदा करने वाले को ही नहीं पहचानते और उनकी मिसाल ऐसी दी गई है जैसे वह जानवरों से भी बदतर हों। जिन लोगों की आलोचना की जानी चाहिए और केवल अपने आपको शर्मिंदगी में डालते हैं बल्कि अपने समाज का नाम भी बदनाम करते हैं। वे लोग जो दूसरों का हक छीनते हैं, काले धंधों में लगे रहते हैं, किसी पर अपना नाजाएज अधिकार बनाने की कोशिश करते हैं, और उनको आर्थिक रूप से नुकसान में डालते हैं, जो गरीबों, मादक पदार्थ के चंगुल में फंसे लोगों का शोषण करके लाभ अर्जित करने की कोशिश करते हैं, गलत और गंदी फिल्मों के प्रचार प्रसार के द्वारा जो लोग समाज में व्यभिचार को बढ़ावा देते हैं।
जो लोग इस प्रकार के कामों को बढ़ावा देते हैं और उन लोगों के प्रति अपनी नफरत का इज़हार करते हैं जो उनसे अलग रहते हैं। उनकी इसी नफरत की बदौलत उनका मजाक का निशाना खासतौर पर युवा होते हैं। जिन युवा मुसलमानों को निशाना बनाया जाता है, तो हम कहते हैं: अपने चरित्र का बखान कर के अपने अंदर शक्ति, भरोसा और तसल्ली हासिल करो।:
जो लोग झूठी गवाही नहीं देते और अगर उनका गुजर किसी बेकार चीज पर से होता है, तो वे वहां से बड़े अच्छे तरीके से कतरा कर निकल जाते हैं। (फुरकान 25:72)
इस प्रकार, जो युवा धार्मिक मुसलमान हैं और जिन्हें कुरआन ने प्रतिष्ठा से नवाजा है, अगर वे ऐसी हालत में अपने को पाएं तो उन्हें चाहिए कि बेहतर तौर पर उससे निकलने की कोशिश करें। अगर उनका मुकाबला जिद्दी और शैतान प्रवृत्ति के लोगों के साथ हो जाए तो उनके पास से मुस्कुराते हुए नेक दिली के साथ गुजर जाईए और अपनी शक्ति एवं सब्र का प्रदर्शन कीजिए सजो एक मुसलमान के लिए शोभा देने वाली बात है। जो लोग दूसरों का मजाक उड़ाते हैं वे वास्तव में अपनी ही तुच्छता का परिचय देते हैं। इसलिए युवा मुसलमानों को चाहिए कि वे छोटी सी बात पर पलटवार न करते फिरें और अपनी नेकदिली और वक़ार को बनाए रखें और अपने अंदर इस्लाम की बेहतर शिक्षाओं और उसकी मिठास को बाहर लाएं। हो सकता है कि आपके इस सदव्यवहार की बदौलत जो लोगा आपका मजाक उड़ा रहे हैं आपकी सहृदयता को देख कर आपकी बात मानने के लिए तैयार हो जाएं। एक मुसलमान के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है और आप भी इस प्रकार साबित कर पाएंगे कि आप पूरी तरह अपने नबी के मार्ग पर चलने वाले हैं।
हम सभी लोगों से अपने किए के बारे में एक दिन सवाल किया जाएगा। जो लोग आज मुसलमानों का मजाक उड़ाते हैं उनका कयामत के दिन मजाक उड़ाया जाएगा; और जिन लोगों का आज दुनिया में मजाक उड़ाया जा रहा है तो अल्लाह उनके सब्र के बदले कयामत के दिन उन्हें बेहतरीन नेमतों से नवाजेगा। उनका गुजर उस दिन पुल सिरात पर ऐसे होगा मानों बिजली की चमक के साथ उस खतरनाक पुल को पार कर गए हों और जो उन्हें उसके बाद जन्नत में पहुंचाने वाला होगा।
हमारी दुआ है कि अल्लाह उन लोगों के कदमों में मजबूती प्रदान करे जिनका मजाक उड़ाया जाता है इसलिए, क्योंकि वे इस्लाम के रास्ते में कोशिशें करते फिरते हैं। उनके अंदर न किसी प्रकार का भय व्याप्त हो और न उनके कदम डगमगाएं और न वह पीछे हटें। अल्लाह उन्हें पूरा साहस और धैर्य प्रदान करे ताकि वे अपनी महान यात्रा को अच्छी तरह पूरी कर लें। अमीन।
3.5 जैसा कि अल्लाह अपनी रहमत पैग़म्बर पर अता फरमाता है, इसमें क्या हिकमत है कि हम भी उन पर दुरूद और सलाम भेजें? क्या उन्हें हमारी प्रार्थना की जरूरत है?
पैग़म्बर मुहम्मद अल्लाह की ओर से जितनी रहमतें, बरकतें और अच्छे काम नाजिल होते हैं उन सबके बीज तत्व की तरह हैं। वह एक मार्गदर्शनक हैं जो न कभी विचलित हुए और न अपने रास्ते से भटके और एक ऐसी मिसाल बन कर सामने आए जिनमें हम सभी के लिए एक उत्तम उदाहरण है, ऐसे व्यक्ति हैं जो हम सभी को सही रास्ते की ओर ले चलते हैं और वे हमें बताते हैं कि अल्लाह की बेहतरीन तरीके से इबादत कैसे की और एक ऐसे नए युग में हमें ले जाते हैं जो हमें इंसान के तौर पर एक अच्छी जिंदगी प्रदान करता है।
वे अल्लाह की ओर से नियुक्त किए गए हमारे लिए एक श्रोता और जरिया के समान हैं, ताकि हमें अंधेरों से निकाल कर रौशनी की ओर ले जाएं। साथ ही उनके कार्य के अनुकूल ही कयामत के दिन सारे मुसलमानों की ओर से किए गए अच्छे कामों का अज्र भी उन्हें प्रदान किया जाएगा। सिद्धांत के अनुसार, “यानि जो किसी के अच्छे काम करने का कारण बनता है तो मानों उसने स्वयं वह काम किया।”30 उसको उतना ही सवाब मिलेगा जितना कि उसकी कौम के लोगों ने अच्छा काम किया है और उसके आमालनामा यानि उसके कार्य के लेखा-जोखा में उसे जोड़ा जाएगा जिसका बदला उसे कयामत के दिल मिलेगा।
पैग़म्बर मुहम्मद के लिए मकामुल महमूद है, यानि एक ऐसा उच्च स्थान जो कयामत के दिन अल्लाह के निकट उन्हें नसीब होगा। उनकी इनामात की किताब को भी उनकी मौत के साथ बंद नहीं किया जाएगा। बल्कि उसमें उनकी कौम एवं उम्मत की ओर से जो अच्छे काम किए गए हैं या किए जा रहे हैं उसका सवाब भी उनके हिस्से में जोड़ा जाएगा। इस प्रकार वपह बुलंद से बुलंद स्थान पर पहुंचते जाएंगे और यह सिलसिला कयामत तक जारी रहेगा।”31 अल्लाह जिस प्रकार चाहेगा उसमें उनकी कौम की ओर से उन्हें बीच बचाव के लिए अनुनय विनय करने का अवसर प्रदान किया जाएगा ताकि वे उनके लिए माफी तलब कर सकें। इस कारण से हम इस प्रश्न पर दो कोणों से दृष्टि डालेंगेः
पहली बात, अल्लाह की ओर पैग़म्बर मुहम्मद पर रहमतें नाजिल होने के लिए दुआ करना एक प्रकार से हमें इस बात का अवसर प्रदान करता है कि हम अपने ईमान को दुबारा नया करें और इस इच्छा का इज़हार करना कि हम उनकी उम्मत में शामिल हैं। इसलिए हम कहते हैं: “हमने आपको बतौर एक पैग़म्बर के तौर पर याद किया और आपके बारे में विचार किया और हमने दुआ की कि अल्लाह आपकी प्रशंसा में इज़ाफा करे और आपको और बुलंद मुकाम अता फरमाए और हम आपके साथ अपनी वफादारी का इजहार करते हैं और अपकी कौम में शामिल होते हैं।” चूंकि हमने इस नीयत के साथ दुआ की है कि अल्लाह उन्हें कयामत के दिन उच्च मुकाम अता फरमाएगा यानि मकामे-महमूद, इसलिए उनकी सिफारिश का दायरा कयामत के दिन फैलता जाएगा और उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होने का मौका नसीब होगा।
दूसरी बात, अल्लाह से पैग़म्बर के लिए दुआ करना कि उनका मुकाम और बुलंद से बुलंद हो, यह एक प्रकार से पैग़म्बर मुहम्मद की छत्रछाया में आने का मौका मिलता है जो कयामत के दिन उनकी ओर से सिफारिश करने का काम करेंगे। इसलिए हम उन पर अपनी ओर से अपना दुरूद और सलाम भेजते हैं। ऐसा करके हम इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि एक पैग़म्बर हैं, वह सारे इंसानों में महानतम पुरूष हैं और उनका अधिकार हम पर सर्वोपरि है, साथ ही हम अपनी तुच्छता एवं कमजोरी का भी एहसास करते हैं और हम अपनी इस जरूरत का एहसास करते हैं कि हमारे लिए उनकी उम्मत यानि कौम में शामिल होना कितना जरूरी है। ठीक जिस तरह से एक इंसान को मुसीबत की घड़ी में किसी की मदद की जरूरत होती है तो हमें भी कयामत के दनि उनकी जरूरत है ताकि वह हमारे बुरे हालात में हमारी मदद कर सकें। वह हमें हमारी अयोग्यता एवं दरिद्रता से निकाल कर खुशहाली की ओर ले जाए। हम आज ही उस दिन की खौफनाकी का एहसास कर सकते हैं। उस दिन पैग़म्बर को अलावा हमारी ओर से कोई सिफारिश करने वाला न होगा इसलिए हम आज ही से अपनी दुआ में दुरूद के जरिये से एक प्रकार से उनके पास अपनी अरजी दाखिल करते हैं कि उस मुसीबत की घड़ी में हमें भी याद रखें।
अल्लाह हमें कयामत के दिन पैग़म्बर की सिफारिश नसीब करे, जो अल्लाह के हुक्म से उस दिन अपनी उम्मत की ओर से सिफारिश करेंगे।
अल्लाह हमें कयामत के दिन उनकी सिफारिश के दायरे में आने का मौका नसीब फरमाए जो वे अल्लाह के सामने अपनी कौम एवं उम्मत की ओर से करेंगे। जब दुसरे सारे पैग़म्बरों से पूछा गया कि वे अपनी कौम के लिए क्या मांगते हैं तो उन सभी ने उनके लिए दुनिया में ही कुछ भलाई देने की दुआ की। लेकिन हमारे नबी ने फरमायाः “मैं कयामत के दिन चाहूंगा कि अल्लाह मुझे अपनी कौम की ओर सिफारिश करने का मौका इनायत फरमाए।”32
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