प्रतिष्ठा का प्रेम
प्रत्येक व्यक्ति में गुणों के बीज के साथ ही बुराईयों के लिए भी संभावना है। व्यक्ति में अनचाहे लक्षण जैसे भावावेश और दिखावे की इच्छा के साथ साथ ईमानदारी, निस्वार्थता और स्वावलंबन जैसे अच्छे गुण भी मौजूद होते हैं। मनुष्य की प्रकृति पर विचार करते समय इन गुणों को भी ध्यान में रखना चाहिए तभी हम निराश नहीं होंगे।
प्रत्येक व्यक्ति को कुछ हद तक प्रतिष्ठा-प्रेम और प्रसिद्धि की इच्छा रखना स्वभाविक हैं यदि इन इच्छाओं को स्वीकार्य तरीके से संतुष्ट नहीं किया तो बिना स्वनियंत्रण के स्वयं को और अपने समुदाय को हानि पहुंचा सकते हैं। ऐसे लोगों की महत्वाकांक्षा को हानिरहित दिशा में मोड़ा जाना चाहिए, अन्यथा उनकी निराश और असंतुष्ट इच्छाएं हानिकारक हो सकती है।
ऐसी कुछ अशुद्धता युक्त आत्माओं द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करके उनकी उन्नति की इच्छा को संतुष्ट करना उनके लिए हानिकारक हो सकता है। तथापि उनकी ये खोज अच्छी हो सकती है, जो उन्हें बड़ी बुराईयों को करने से रोकेगी। उदाहरणार्थ एक गायक जो ईश्वर की दी हुई क्षमता को उपयोग में लाना चाहता है उसे अश्लील गीतों की जगह ईश्वर भजन गाना चाहिए।
ईमानदारी और शुद्ध भावना से किए जा रहे कार्य उसे करने वाले के गुणों का निर्धारण करते हैं और ये भी निर्धारण करते हैं कि ईश्वर उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। वैसे, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए आस्था को पूरी ईमानदारी से निभाना आसान नहीं है, तो ये ध्यान में रखा जाना कि उनके अंदर की अच्छाई, बुराई से अधिक है। बहुत से दिखावे के लिए और ईमानदारी के बिना किए गए कार्यों को पूर्ण हानिकारक नहीं माना जाना चाहिए। लोग कभी-कभी अपने अहम और इच्छा के द्वारा अपने कार्य को अपवित्र कर देते हैं और हमेशा ईश्वर की स्वीकृति भी नहीं लेते और अपनी गल्तियों को दोहराते रहते हैं। लेकिन हमें ये दावा करने का अधिकार नहीं है कि सत्य के पक्ष में नहीं है।
यदि एक समूह में प्रत्येक व्यक्ति किसी विशेष क्षेत्र में अपनी प्रभुता स्थापित करने की कोशिश करता है और कुछ अन्य लोग उसकी नकल करते हैं तो अनुशासनहीनता आती है, भ्रम पैदा होता है और समुदाय अपने ही खिलाफ विभाजित हो जाता है। अंततः व्यवस्था नष्ट हो जाती है क्योंकि नेतृत्व को लेकर भ्रम पैदा हो जाता है और आगामी शासन, शासक और शासित के बीच संघर्षरत रहता है।
यदि एक सरकार के सफल सदस्य या एक राज्य या संस्थान के योग्य अधिकारी अपनी योग्यता के लिए लाभ में से हिस्सा मांगने लगे तो सरकार पंगू हो जाती है राज्य नष्ट हो जाता है और संस्थान में अव्यवस्था व्याप्त हो जाती है और वो पतन की ओर जाने लगता है। एक सरकार स्वयं में अनुशासन पर निर्वाह करती है, एक राज्य अपने सिद्धांतों के द्वारा अवलंबित होता है और एक सेना की स्थापना आदेश और आज्ञा की संरचना के आधार पर होती है। इसके विपरीत किया गया कोई कार्य उन मुख्य तत्वों की उपेक्षा को प्रकट करता है जो पारंपरिक रूप से मानव समाजों के जुड़ाव को सुनिश्चित करता रहा हैं।
यदि लोगों के हृदय उस महान सृजनकर्ता ने जो भी प्रदान किया है केवल उसमें संतुष्ट हो! यदि वे केवल उसका दिव्य सुख प्राप्त करे! कुछ स्वयं की खोज करते लोग सूर्य के प्रकाश से संतुष्ट हो जाते हैं परंतु इसके साथ वे कभी उस शाश्वत प्रकाश के द्वार तक नहीं पहुंच सकेंगे।
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