परिप्रेक्ष्य

5.1 आखिर क्या कारण रहा कि इतने बड़े भूभाग में इस्लाम अतीत में इतनी तेजी के साथ फैलने में सफल रहा? आज के आधुनिक दौर में मुसलमानों की हार और जीत का क्या कारण है?

किसी का मुसलमान तभी कहा जा सकता है ज बवह एक अल्लाह पर यकीन करता हो और उसके बताए गए सिद्धांतों का पालन करता हो, जो कभी उसके प्रतिकूल जाकर अपने लिए कोई दूसरा रास्ता तलाश करने की कोशिश न करे, पूरी तरह अपने को अल्लाह के हवाले कर दे, साथ ही पूरी ईमांदारी से उसकी बंदगी करता हो और उसके बताए गए इबादत के तरीके पर अमल भी करता हो, चाहे उसका संबंध उसके अपने व्यक्तिगत जीवन से हो, पारिवारिक जीवन से हो या सामाजिक जीवन से हो। अगर कोई इंसान का दिल इस्लाम धर्म के लिए छटपटाता हो और उसके प्रेम में वह पूरी तरह डूबा हुआ हो तो फिर उस आदमी को दूसरों के अपने बुरे कामों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा। कोई भी बेहतरीन और उत्तम प्रणाली हो अगर उसे इस्तेमाल किए बिना एक ओर कर दिया जाए तो फिर उसके इस्तेमाल के तरीके को भी इंसान भूल जाएगा गुजरते वक्त के साथ, फिर उसके इस्तेमाल के तरीके को भी इंसान भूल जाएगा गुजरते वक्त के साथ, फिर दुबारा उसे इस्तेमाल में लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। अगर वह प्रणाली सिजका संबंध इंसान के जीवन से हो और जिसके साथ वह प्रणाली जिसका संबंध इंसान के जीवन से हो और जिसके साथ जिम्मेदारियां जुड़ी हों, जिसको बजा लाने से आने वाले दिनों में उसे सुख और शांति मिलने वाली हो, तो क्षणिक तौर पर हो सकता है कि वे जिम्मेदारियां जुड़ी हों, जिसको बजा लाने से आने वाले दिनों में उसे सुख और शांति मिलने वाली हो, तो क्षणिक तौर पर हो सकता है कि वे जिम्मेदारियां कठिन और थका देने वाली हों, तो उस जिंदगी को दुबारा शुरू करना कितना मुश्किल काम है और न केवल कुछ लोगों की सहमति प्राप्त करनी हो बल्कि मुश्किल काम है और न केवल कुछ लोगों की सहमति प्राप्त करनी हो बल्कि पूरे समाज की सहमति जरूरी हो? उसके बावजूद भी, अगर लोग दृढ़संकल्प है और अपने काम को लेकर वाकई संजीदा हैं कि हम इसे दुबारा शुरू करें, उनकी जो ईमानदारी भरी कोशिश है, हो सकता है कि उनको माफ करने के लिए उपयुक्त कारण बन जाए और उनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई है और न हो सकी है। अगर लोग इस मकसद को हासिल करने के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश करते हैं यानि बिल्कुल जिंदगी और मौत की तरह, जिम्मेदार नहीं ठहरता जाएगा। वास्तव में, इस जिम्मेदारी से बरी होने के लिए, उन्हें चाहिए कि इस्लाम का पूर्ण रूप से पालन करें या फिर उनके अंदर इतनी गहरी चाह हो कि अपनी जिंदगी को इस्लामी तरीके से ही गुजारेंगे और उन्हें चाहिए कि अपनी जिंदगी की सच्ची हकीकत बनाएं। उनके विपरीत किया गया कोई भी काम बुरे परिणाम को सामने लाएगा चाहे वे इस दुनिया में हो या मौत के बाद की जिंदगी में हो। इस दुनिया में इस्लाम से दूरी के कारण लोग अपमान की जिंदगी गुजारने के लिए विवश हैं और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वे सामाजिक जीवन हों, राजनीतिक हों, आर्थिक हों, सैनिक हों, उनकी जिंदगी अविश्वास के साये में ही गुजरेगी। हो सकता है कि दुनिया के ज्ञान और विज्ञान में वे अपने इल्म में काफी बढ़ जाएं। लेकिन कयामत के दिन उन्हें उनके सारे कामों का हिसाब देना पड़ेगा और उन्हें अपने किए की सख्त सजा भुगतनी होगी।

लगभग हजारों सालों तक, मुसलमानों ने संस्कृति और सभ्यता का विकास देखा है जो एक स्तर से दूसरे स्तर तक जारी रहा है और उसकी खूब सराहना की गई है। खलीफाओं के काल में विशेष रूप से यह विकास अधिक उत्तम रहा है। जिन लोगों ने पैग़म्बर के बाद की एक शताब्दी तक अपना जीवन गुजारा है उन्हें वास्तविक इस्लामी जिंदगी का प्रतिनिधि कहा जाएगा। अल्लाह के नबी उस युग के बारे में फरमाते हैं।

मुस्लिम सेनाएं मेरे बाद नगरों के द्वारों पर आएंगी और जहां उनसे पूछा जाएगा, “क्या तुम में से किसी ने पैग़म्बर को देखा है?” लोग हां में जवाब देंगे और उनके लिए दरवाजे खोल दिए जाएंगे। जो लोग उनके बाद आएंगे वे जिहाद करेंगे और उनसे भी पूछा जाएगा, “क्या तुम में कोई ऐसा है जिसने उन लोगों से मुलाकात की हो जिन्होंने पैग़म्बर का देखा था?” वे लोग जवाब देंगे, “हां” और उनके द्वारा शहरों पर विजय प्राप्त कर ली जाएगी। फिर उनके बाद उनकी तीसरी नस्ल आएगी और उनसे पूछा जाएगा, ”क्या तुम में से किसी ने उनको देखा था जिन्होंने पैग़म्बर के साथियों के अनुयायियों को देखा था?“ अगर इस सवाल का जवाब भी हां में रहा तो उनके लिए जीत पक्की होगी।1

बुखारी और मुस्लिम की एक दूसरी हदीस में अल्लाह के नबी ने फरमाया कि जो तीन आने वाली नस्लें होंगीः ”उनमें से सबसे बेहतर तो वे होंगे जो मेरे जमाने में जिंदा रहेंगे और फिर उसके बाद वे लोग होंगे जो उनके बाद आएंगे और उसके बाद वे लोग जो उनका अनुसरण करेंगे।”2

उन तीन नस्लों के लोगों ने उचित रूप से अल्लाह के लिए बताए तरीकों का पालन किया और उन्हें महान विजय और सफलताएं प्रदान की गईं।

जब हम अपने इस्लामी अतीत पर नजर डालते हैं, जो ऐतिहासिक घटनाएं हैं वे अल्लाह के नबी की हदीसों को पुष्ट करती हैं। चारों खलीफाओं का समय तीस सालों तक रहा। हजरत उसमान के जमाने में मुसलमान दुनिया की चारों दिशाओं में फैल गए। एक आरे जहां वे लेक अराल की ओर गए तो वहीं दूसरी ओर पूर्वी अनातोलिया के एरजूरूम नामक स्थान तक। उनमें आपस में मतभेद एवं भिन्नताओं के बावजूद, काफिरों के खिलाफ जिहाद करने का जज्बा उनमें हमेशा सर्वोपरि रहा और इसी बल पर आगे बढ़ते रहे। उसी समय मुसलमानों ने लगभग पूरे उत्तरी अफ्रीका पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। उस विजयी काल में ही वह सैनिक अभियान सफल साबित हुआ था और उनके जीवन काल में ही वह सैनिक अभियान सफल साबित हुआ था और उनके बाद तक लोग उनके आदेश का पालन करते रहे। जब वे अटलांटिक के स्थान पर पहुंचे तो उस मसय अपने घोड़े पर सवार थे और उसे समुद्र में दौड़ाते हुए कहाः “या अल्लाह! अगर यह समुद्र का अंधेरा मेरे सामने न आया होता तो मैं दुनिया के सुदूर स्थानों तक जा पहुंचता।”3 उस समय के महान मुस्लिम सेनापति यह नहीं जानते थे कि जहाज समुद्र या हवा में कैसे चलाए जाते हैं वे या तो घोड़े या ऊंटों की पीठ पर सवार होते थे या फिर पैदल जाया करते थे और नदी नाले भी साधारण बेड़ों की मदद से पार किया करते थे। लेकिन सारी आधुनिक तकनीकी सहूलियतों के न होने के बावजूद बेहद कम समय में वे दुनिया के एक बड़े भूभाग तक पहुंचने में सफल रहे।

यह भी भाग्य का अजीब रहस्य है कि जहां-जहां पैग़म्बर के साथी यानि सहाबा-एकराम तशरीफ ले गए वहां-वहां उन्होंने विजय प्राप्त की और आज भी मुसलमान दूर-दूर तक फैले हुए हैं उन स्थानों पर भी जो अरब की सरजमीन से दूर हैं जैसे दागिस्तान, तुर्केमिस्तान, उजबेकिस्तान और कजाकिस्तान इत्यादि। इन देशों में आज भी मस्जिदों में अजान की आवाजें गूंजती हैं और उनके यहां इस्लामी शैक्षणिक संस्थान हैं और वहां से बड़े-बड़े विद्वान और वैज्ञानिक पैदा हुए हैं, जो आज भी अपने-अपने क्षेत्र के उच्च कोटि के विद्वान माने जाते हैं जैसे बुखारी से मुस्लिम तक, मुस्लिम से तिरमिजी तक इब्ने सीना से अल फाराबी तक, क्योंकि इन जगहों पर इस्लाम को जीने वाले लोग मौजूद थे। हमें पूरा यकीन है कि इस्लाम का वही वैभव और उसकी वही उत्कृष्टता फिर उन स्थानों पर प्रकट होगी और मुसलमान अपनी पुरानी खोई हुई साख पाने में सफल रहेंगे।

सहाबा-एकराम ने जितने कम समय में पूरी दुनिया के बड़े भाग पर जिस प्रकार अपना अधिकार स्थापित किया वह कई अर्थ में महत्वपूर्ण हैं और उसकी अलग से व्याख्या करने की जरूरत है। पहली बबा तो यह कि सहाबा-एकराम इस्लाम के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे। उसके अलावा उनकी कामयाबी के पीछे जो भी दलीलें दी जाती हों वह उनके दुश्मनों के दिमाग की कोरी उपज ही कही जा सकती है। उदाहरण के तौर पर, “हजरत अली पैग़म्बर मुहम्मद के बिस्तर पर सोए उनकी जगह पर, जब उन्हें मक्का छोड़ कर उस रात मदीना के लिए हिजरत करना था और जब दुश्मनों ने पूरे घर को घेर लिया था कि उनकी हत्या कर डालेंग। हजरत अली का इस प्रकार से करना यह माना गया कि वे इस बात के लिए तैयार थे कि उनकी हत्या कर दी जाएगी। लेकिन काफिरों ने जब पैग़म्बर के स्थान पर उन्हें देखा तो हैरान रह गए कि एक सत्तरह साल का बच्चा वहां सोया हुआ है जिसको अपनी जान की जरा भी परवाह नहीं है। एक दूसरी घटना में एक बार जब अबू जेहल ने बहुत से जानवरों को चीखते चिल्लाते सुना, तो अबू जेहल दूसरे काफिरों के साथ अब्दुलाह बिन जहश के मकान की छत पर चढ़ गया ताकि देखें कि क्या बात हो गई है जो जानवर इतना शोर मचा रहे हैं। जो कुछ उसके बाद उन लोगों ने देखा तो हैरान रह गए। उस परिवार के सारे लोग घर छोड़ कर मदीना हिजरत करने के लिए चल पड़े थे। यह देख कर अबू जेहल ने अब्बास से कहा, “कितनी अजीब बात है। तुम्हारे इस भतीजे ने हमारे आपस में कितना विभाजन कर दिया है कि उसे बयान करना और समझना भी मुश्किल है।” घर, सामान, जानवर और बीवी बच्चे और बाकी सारे दूसर सामान छोड़ कर अल्लाह और उसके रसूल की खातिर वे लोग चल पड़े थे। अखिर काफिरों को यह बात कैसे समझ में आ सकती थी।?

जब अबू बकर मक्का से मदीना हिजरत कर रहे थे तो उन्होंने अपने साथ कुछ भी नहीं रखा बल्कि उन्होने अपनी बीवी बच्चे, अपने पिता को भी छोड़ दिया जिन्हें वे बहुत प्यार करते किया करते थे हजरत उसमान अपनी बीवी हजरत रोकय्या को भी अपने साथ नहीं ले गए जबकि वह पैगंबर मुहम्मद की बेटी थी। रोकय्या को पैग़म्बर अपनी आंखों की रौशनी कहा करते थे और मुझे पूरा विश्वास है कि अगर हजरत के लिए किसी को अगर अपनी जिंदगी की कुर्बानी देने की पेश आए तो जो आज लाखों मुसलमान अपनी जिंदगी की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाएंगे। फिर भी उन्हें हजरत उसमान मक्का में छोड़ कर मदीना के लिए रवाना हो गए। उनकी पैग़म्बर के प्रति ऐसी गहरी वफादारी।

उरवान बिन मसूद जब पैग़म्बर से बीतचीत के बाद मक्का लौटा तो उसने आदमियों से कहा कि उनके साथी उनके लिए किस प्रकार अपनी जान कुर्बान करने के लिए हर वक्त तैयार नजर आते हैं:

ऐ लोगो! मुझे एक राजदूत के तौर पर बड़े-बड़े राआजों के दरबार में भेजा गया है जैसे सीजर, कोसरोस और नेगूस। लेकिन मैंने नहीं देखा कि किसी राजा की इज्जत उसके आदमी इतना करते हों जितना कि पैग़म्बर मुहम्मद के साथी उनकी करते हैं अगर वह किसी काम को करने का आदेश देते हैं तो लोगों में उसे करने की होड़ सी मच जाती है। जब वे वजू करते हैं, तो फिर उस पानी को बटोरने के लिए आपस में झगड़े करने लगते हैं; जब वे कुछ बोलते हैं तो नबी के सामने उनकी आवाज बेहद पस्त रहती है; और न ही कभी उनके अंदर ऐसीर हिम्मत होती है कि भरी नजर से पैग़म्बर को दखे सकें बल्कि इज्जत और ऐहतेराम से अपनी नजरें झुका लेते हैं।..........4

लेकिन फिर भी पैग़म्बर ने उन लोगो को मशविरा दिया जो उनकी मदद के लिए हर वक्त तैयार खड़े तैयार खड़े रहते थेः “मेरे आदर में इस प्रकार खड़े मत हो जाया करो जैसा कि फारस के लोग अपने बड़ों के समाने खड़े हो जाया करते हैं।”5 पैग़म्बर ने हमेशा अति विनम्रता और सहृदयता का उदाहरण पेश किया यहां तक कि फरिश्तों से भी इस मामेल में आगे निकल गए। यह बयान किया जाता है कि जब पहली बार पैग़म्बर मुहम्मद ने फरिश्तों के सरदार हज़रत जिब्रील अ. को देखा तो उन्होंने कहा, “अगर जिब्रील मुहम्मद की हकीकत को जान लेत तो वे मौत का शिकार हो जाते और कभी भी कयामत तक मेरे सामने आने की हिम्मत नहीं करते।” पैग़म्बर रोज अल्लाह से कुरबत और नजदीकी के मामले में नई से नई ऊंचाईयां चढ़ रहे थे। लेकिन उसके बावजूद भी उनकी विनम्रता में कभी कोई कमी नहीं आई। वे हमेशा अपने को एक साधारण इंसान के तौर पर ही पेश करते रहे और अगर उनके साथ कोई अधिक आदर और सत्कार का व्यवहार करता तो उन्हें बहुत परेशानी महसूस होती थी।

यह वह जमाना था जब सहाबा-एकराम पूरी तरह पैग़म्बर मुहम्मद के साथ घुल मिल कर अपनी जिंदगी गुजार करते थे। जब पैग़म्बर ने फरमायाः “तुम्हारा खून मेरा खून है और तुम्हारी जिंदगी मेरी जिंदगी है।” इसका मतलब था कि अर्थ और रूह की दृष्टि से यही ठीक था। जब यह समय आया कि इस्लाम को लेकर वे सारी दुनिया में फैला जाए तो किसी ने नहीं कहा कि क्यों और क्या। वे केवल निकल पड़े और यह न सोचा कि दुबारा घर वापसी होगी या नहीं। उनके अंदर अल्लाह की मुहब्बत ऐसी थी कि वे हिजरत करने से जरा भी नहीं घबराते थे और इस बात से डरते थे कि कहीं उनकी मौत उनके घरों में रहते हुए न आ जाए। साद बिन अबी वक़ास मक्का में बुखार से पीड़ित थे और गम के मारे कांप रहे थे। जब पैग़म्बर ने उनके दुख का कारण पूछा, तो उन्होंने कहा कि उन्हे यह डर सता रहा है कि कहीं मदीना हिजरत कर जाने के बावजूद उनकी मौत कहीं मक्का मे ने हो जाए तो इस प्रकार उनकी हिजरत का मकसद पूरा नहीं होगा।

जब पैग़म्बर मुहम्मद खैबर के अभियान पर रवाना हुए तो वे नहीं चाहते थे कि हजरत अली को अपने साथ ले जाएं क्योंकि उनकी आँखों में तकलीफ थी। लेकिन अली इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि वे उनके साथ जाने से वंचित रह जाएं। उन्होंने कहाः “क्या आप चाहेंगे कि मैं औरतों और बच्चों की तरह पीछे रह जाने वालों में शामिल रहूं ऐ अल्लाह के नबी?” अंत में उन्होंने न केवल उस अभियान में हिस्सा लिया बल्कि अपनी असाधारण बहादुरी के बल पर फतह भी दिलाई।

एक बाद एक सैनिक अभियान पर जाते हुए पैग़म्बर मुहम्मद ने मदीने की जिम्मेदारी उम्मे मखतूम के हवाले कर दी जो कि एक नाबीना शख्स थे। उन्हें लड़ने से इसलिए वंचित कर दिया गया था क्योंकि वे अंधे थे। जो लोग उनके साथ रह गए वे केवल औरतें और बच्चे थे। बहुत सालों बाद जब उम्मे मखतूम को पता चला कि मुसलमान ईरानियों से लड़ने के लिए जा रहे हैं तो अपने बुढ़ापे के बावजूद उनके दल से जा मिल और आग्रह किया कि इस अभियान में उन्हें भी साथ लेकर चलें। कुछ मुसलमान जैसे मुगीरा इब्ने शोबा की इच्छा थी कि वे युद्ध दूर रहें लेकिन उम्मे मखतूम को उस दल के नेता से बात करने का मौका मिल गया और उस अभियान की कमान साद इब्ने अबी वकास के हाथों में थी। उम्मे मखतूम ने कहा, “मुगीरा बिन शूबा चाहते हैं कि मैं अल्लाह की राह में जिहाद न करूं।” अगर आप भी ऐसा ही चाहते हैं और जिहाद में शामिल होने से रोक देते हैं तो मैं आप लोगों की शिकायत खलीफा हजरत उमर से करूंगा।” इस्लाम के प्रति उनकी मुहब्बत इतनी गहरी कि जान देने के लिए भी दूसरों से शिकायत करने की बात कह रहे हैं। जब उन से पूछा गया कि आप क्या कर सकते हैं तो उन्होंने जवाब दियाः “बेशक मैं अंधा हूं मगर इस्लामी झंडे को पकड़े रहने से कोई मुझे नहीं रोक सकेगा। मैं सेना के सामने झंडा उठाए रहूंगा।” उन्होंने वाकई यह कर दिखाया, ऐसा ही किया और कदीसिया की जंग में शहीद हुए।

सहाबा-एकराम उस प्रकार के लोग थे जो अल्लाह की राह में आए खतरों को तुच्छता की निगाह से देखते थे। यहां तक कि अपने ईमान की हिफाजत के लिए अपनी जानों की कुर्बानी देने से भी परहेज नहीं करते थे। ताकि सारी दुनिया को उनकी जांनिसारी का एहसास हो जाए।

हालांकि अबू तलहा बेहदा बूढ़े हो गए थे और काफी कमजोर भी थे लेकिन जब उन्होंने सुना कि मुस्लिम सेनाएं साइप्रस के लिए रवाना हो रही हैं, तो उन्होंने अपने पोते को बुलाया और कहा कि वह उस अभियान में शामिल होना चाहते हैं: “मैंने पैग़म्बर स.अ.व. से सुना था कि साइप्रस पर मुसलमानों की फतह होगी6 और मुझे लगाता है कि यही वह समय है और मैं उसमें शामिल होना चाहूंगा। लेकिन मेरे लिए यह संभव नहीं है कि मैं घोड़े की पीठ पर बैठ सकूं और उसकी सवारी कर सकूं। इसलिए मुझे उसकी पीठ से मजबूती से बांध देना ताकि मैं गिर न जाऊं।” उनके पोते की यह बिल्कुल ख्वाहिश नहीं थी कि ऐसी हालत में वे जंग में शरीक हों क्योंकि वे बेहद बूढ़े थे लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकता और उनके लिए जंग से गायब रहने पर अल्लाह की ओर से कोई जवाब नहीं तलब किया जाएगा। हालांकि वे कुरआन की उस आयत का मतलब समझते हैं जिसमें कहा गया है कि वे लोग जो अल्लाह की राह में कोशिशें करते हैं और जो बूढ़े और युवा में तमीज नहीं करते; और उन्होंने उसे उसके उचित अर्थ के साथ समझा था। अंत में, फिर भी उनका पोता उनको जंग में जाने से रोक नहीं पाया और उसी प्रकार उसमें शरीक हुए जैसा कि उनकी ख्वाहिश थी। हालांकि उनकी उम्र को देखते हुए उन्हें इस प्रकार के अभियान में हिस्सा नहीं लेना चाहिए था। लेकिन उनके दिल की जो ख्वाहिश थी उसे उन्होंने पूरी की। शायद वे अपनी आखरी सांस के साथ यह कह सकते थेः “हम अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं कि उसने हमें वह चीज प्रदान की जिसकी हमने तमन्ना की थी।”

एक दूसरे सहाबी, अबू अय्यूब अल अंसारी, जिन्होंने पैग़म्बर स.अ.व. की अपने घर पर मेहमान नवाज़ी की थी, उस समय उनकी शादी हो चुकी थी और उनके कई बच्चे थे जब पैग़म्बर मदीना शरीफ आए थे। अबू अय्यूब के पोतों ने उनकी मदद की थी कि वह घोड़े की पीठ पर सवार हो जाएं जब वह इस्तंबूल के सफर से वापस लौट कर आए थे जहां वह यज़ीद की अगुवाई में जंग लड़ने के लिए गए थे। पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व. की मदीना आमद से लेकर मुआविया के शासनकाल तक और यजीद की अगुवाई में लड़ने तक, लगभग 40 से 50 साल का समय बीत चुका था। अबू अय्यूब की उस समय अवश्य ही उम्र 75 से 80 साल की रही होगी जब वह इस्तंबूल के आस पास पहुंचे थे।

यहां पर हम रूक कर इस बिंदु पर विचार करते हैं; पैग़म्बर मुहम्मद के बाद उनके सहाबा किस प्रकार के लोग थे? कुरआन में कई ऐसी आयतें हैं जिनमें उनके साथियों की स्वयं अल्लाह की ओर से प्रशंसा की गई है। अल्लाह ने उन्हें अंसार यानि मदद करने वाले के रूप में मुखातिब किया और मुहाजेरीन की पदवी प्रदान की और जिन पर अल्लाह की प्रशंसा नाजिल हुई। उनके बारे में पहले से ही प्राचीन और नवीन टेस्टामेंट में वर्णन किया जा चुका था यानि तौरेत और इंजील में। उन लोगों ने पैग़म्बर से सुना था कि विजयी मुस्लिम सेनाएं यूरोप के दरवाजे तक आ पहुंचेंगी और उन्होंने यह खुशखबरी भी सुनाई थी कि उनके द्वारा इस्तंबूल को फतह किया जाएगा। बहुत से लोगों ने इसको सच साबित करने की कोशिशें की और पैग़म्बर के ये शब्द लोगों का उत्साह बढ़ाने के लिए काफी रहे होंगेः “निश्चित तौर पर, कौंस्टेनटिपोल पर फतह की जाएगी। भाग्यशाली हैं वे सैनिक कमांडर जिनके हाथों इस शहर पर फतह नसीब होगी और खुशनसीब हैं वे सिपाही जो उसमें शामिल होंगे।”7

चूंकि वह शहर अपने आप में एक बड़ी रियासत के लिए प्रतीक के तौर पर जाना जाता था, इस प्रकार पैग़म्बर अपनी सेना को इस बात का आह्वान कर रहे थे कि इस्लाम को लेकर वे पूरी दुनिया में फैल जाएं। इस प्रकार उन मुसलमानों के सामने बस एक ही लक्ष्य था कि किस प्रकार उन भाग्यशाली लोगों में शामिल हो जांए जिनको हाथों इस्लाम का झंडा सारी दुनिया में बुलंद होगा। उसके अलावा उनकी जिंदगी का कोई दूसरा मकसद नहीं था और न उतनी तकलीफें और परेशानियां उठाने का कोई दूसरा कारण मौजूद था। चूंकि अल्लाह की निगाह में उन लड़ने वालों की बड़ी कद्र थी जैसा कि पैग़म्बर मुहम्मद ने फरमाया था इसलिए उनके बीच इस बात की होड़ लगी रहती थी कि कौन उसमें शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त करता है।

अल्लाह के नबी उनकी तारीफ करें इस उम्मीद में, अबू अय्यूब अंसारी (खालिद बिन जैद) अपनी बुढ़ापे की उम्र में भी मदीना से इंस्तबूल के लिए रवाना हो गए। उस शहर को कई हफ्तों एवं महीनों तक घेराबंदी करके रखा गया लेकिन मुसलमानों को उस समय फतह हासिल नहीं हुई। उसके पहले, अबू अय्यूब अंसारी पूरी तरह थक चुके थे और अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह एक ही बात बार बार पूछते, “क्या फतह की कोई खबर आई?” इत्तेफाक से जब मुस्लिम सेना के कमांडर को यह एहसास हो गया कि अब अबू अय्यूब अंसारी की मौत बेहद करीब है तो उन्होंने पैग़म्बर मुहम्मद के प्रिय साथी से जाकर बड़े आदर से पूछा कि क्या आपकी कोई ख्वाहिश भी है जिसे आप पूरा करना चाहते हैं। तो अबू अय्यूब अंसारी ने जवाब दिया, “तुम मुझे जितनी दूर संभव हो सके ले जाओ। अगर तुम ले जा सकते हो तो मुझे इस्तंबूल की बाहरी दीवारों के पार ले जाओ और जहां चाहो दफन कर दो। लेकिन मुझे लगता है कि ऐसी जीत अभी संभव नहीं है। लेकिन मुझे इस बात का भी पूरा यकीन कि एक दिन यह सपना साकार होगा क्योंकि पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व. ने ऐसी भविष्यवाणी की थी और यह मकसद किसी और मुसलमान के हाथों पूरा होगा। फिर उसके बाद मैं उसी शहर की सरजमीन में दफन होना चाहूंगा। उनकी तलवारों के और कवचों के आपस में टकराने से जो आवाज पैदा होगी उसे मैं अपनी कब्र में रह कर भी सुन पाऊंगा। और इससे मुझे खुशी होगी। कम से कम उन सौभाग्यशाली सैनिकों की आवाजें तो सुन लेने दो।” उसके पांच और छः शताब्दी बाद इस्तंबूल को उस्मानिया सल्तनत के जमाने में कब्जा किया जा सका और जिस की अगुवाई मुहम्मद यानि महमेद कर रहे थे और उस वक्त उनकी उम्र केवल 22 साल थी। किस्मत इस प्रकार अपना खेल दिखाती है, एतिहास में एक युग इस प्रकार समाप्त होता है और एक नए युग का आग़ाज होता है। अल्लाह के नबी की इस खुशखबरी भरे शब्द के साथ शुरूआत होती है कि इसके लोहे के दरवाजों को उसी तरह तोड़ डालो जैसा कि खैबर के दरवाजों को तोड़ा गया था और फिर मुहम्मद स.अ.व. के पैगामात को यूरोप तक ले जाओ। इस प्रकार सुलतान मेहमद के ऊपर अल्लाह की रहमतें नाजिल हुईं। यह कहा जा सकता है कि उन्होंने इस्लामी रूह का उसी प्रकार प्रतिनिधित्व किया जैसा कि अपने समय में इमाम मेहदी करेंगे। ये उन सिपाहियों की आवाजों में शामिल थे जिनकी आवाज को सुनने की तमन्ना अबू अय्यूब अंसारी ने की थी।

जो लोग पूरी ईमानदारी के साथ इरशाद और तबलीग यानि मार्गदर्शन एवं दूसरों को दीन की ओर बुलाने का काम करते हैं और अपनी जान और माल से दीन के क्षेत्र में संघर्ष करते हैं और जिहाद करते हैं तो वे पूरी दुनिया को फतह कर सकते हैं और अपन प्रभुत्व स्थापित करते हैं जैसा कि अल्लाह के पैगम्बर ने एक हदीस में बयान फरमाया है, जब मुसलमानों की रूहों की उनकी मौत का भय जकड़ लेगा, तो जो चीज भी उन्हें हासिल हुई है वह उनके हाथ से एक-एक करके निकलती जाएगी। हम लोगों ने दुनिया में काफी सम्मान और वैभव का जीवन पाया है और तीन शताब्दी पहले तक हम ही विजेता थे। अब हमने उस सम्मान को खो दिया है। उसका केवल एक ही कारण हो सकता है कि हमने जब से इस्लामी रूह को अपने अंदर से खोया है हमें नाकामी का मुंह देखना पड़ा है। जब तक हम अल्लाह के नेक और वफादार बंदे बने रहे तब तक हमें अल्लाह की ओर से हर प्रकार की मदद हासिल रही। जब हम में यह एहसास कमजोर होता गया तो मौत का खौफ भी हम पर सवार होता गया, भविष्य की चिंताएं और आरजूएं हमें सताने लगीं।

अतीत में पैदा हुए उन मुसलमानों ने पूरी दुनिया में अल्लाह के दीन को फैलाने का काम किया और अच्छा शासन स्थापित किया। इससे बड़ी सादत की बात उनके लिए और क्या हो सकती थी कि उन्होंने शारीरिक, आध्यात्मिक एवं भौतिक हर प्रकार से अल्लाह के रास्ते में कुर्बानियां दीं।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उनका संबंध किस कौम और मुल्क से है, हम देखते हैं कि उन सभी जांबाजों की परवरिश उसी एक इस्लामी रूह के साथ हुई। उनके अंदर दुनिया की न तो कोई चाह थी और न ही उसके लिए कभी जिंदगी जीते थे बल्कि उनका मकसद तो दूसरों को सच्ची खुशी पहुंचाना था। उनका बस एक ही मकसद होता था कि इस्लाम को दूर दूर तक फैलाएं जैसा कि एक मोमिन और पैग़म्बर के अनुयायियों को दायित्व बनता है। सेल्जूक में, उस्मानिया या दूसरी सल्तनतें, जैसा कि अरपलसान, किकारसालान, मुराद हुदेवंदीगर, मेहमद जिन्हें विजयी सुलतान की पदवी हासिल है, सलीम प्रथम, सलाहुद्दीन अय्यूबी और दूसरे अनेक जिनके अंदर हम सही इस्लामी रूह और सोच पाते हैं।

अलपरसालान और सेल्जूक सुलतान जिन्होंने 1071 में बाईजेंटाइन को हराया था, इस प्रकार उसने अंटोलिया के द्वार को खोलने का काम किया और बाइजेंटाइन सल्तनत का बड़ा भूभाग मुसलमानों के अधीन आ गया। उन्होंने मलाजगिरअ के युद्ध के पहले एक प्रवचन किया था जिसे इतिहास के महान युद्धों में शुमार किया जाता है और अपनी बात इस दुआ के साथ समाप्त की थीः “या अल्लाह, जो सफेद लिबास और लिबादा मैंने आज पहन रखा है उसे ही मेरा कफन बनाना।” वे मुसलमान युद्धभूमि में शहीद का दर्जा हासिल करने की नीयत से गए थे न कि केवल नाम मात्र में युद्ध में हिस लेने और जो उनके दिल में चाह थी उसे उसी प्रका सच कर दिखाया। उस रूप से वे दुश्मनों के छक्के छुड़ाने में पूरी तरह तैयार और योग्य थे और अक्सर बड़ी बड़ी जंगों में बड़ी आसानी से फतह हासिल की। यहां तक कि उन्होंने राजा रोमानूस दियोजेनूस को बंदी बना लिया। उस समय यह कहा गया था कि सुलतान अलपरसालान उस नतीजे से खुश नहीं थे क्योंकि उनकी चाह तो शहादत को हासिल करने की थी।

ओटोमन सुलतान मुराद हुदवेंदीगर ने सारी रात बस यह दुआ कीः “या अल्लाह हमारी सेना को विजय नसीब कर और मुझे शहादत का दर्जा अता फरमा।” जब वह कोसोवों में सर्बों से लड़ने के लिए गए थे। उनकी दुआ कबूल हुई थी, सर्बों को उन्होंने हराया था लेकिन ज बवह अपने जख्मी सैनिकों को देख रहे थे कि धुर्तता से उसी समय एक सर्व ने उन पर घात लगा कर हमला कर दिया और उन्हें शहीद कर दिया। जब वह जमीन गिरे हुए थे तो उनसे पूछा गया कि उनकी आखिरी ख्वाहिश क्या है तो उन्होंने केवल दो शब्द में यह जवाब दिया “नेवर डिस्माउंट यानि मैं कभी अपने घोड़े की पीठ से उतरना नहीं चाहूंगा।” फिर उसके बाद उनकी मौत हो गई। उनके कहने का यही मकसद था कि वह नहीं चाहेंगे कि कभी अल्लाह के रास्ते में जिहाद को रोका जाए और उनके संदेशों को सुदूर इलाकों तक ले जाया जाए।

उन लोगों ने ऐसी ऐसी महान सल्तनतें कायम कीं कि दुनिया के दूसरे साम्राज्यों ने उनके तौर तरीके और हिसाब से अपनी सल्तनतों का काम-काज दुरूस्त किया। वे अपनी सारी कोशिश अल्लाह के दीन को स्थापित करने में लगा दिया करते थे और दुनिया की बाकी हर चीज को नीची निगाह से देखते थे। वे हर चीज को अल्लाह की खुशी और नाराजगी के तराजू में तौला करते थे और उस दीन के लिए पूरी अंधभक्ति के साथ अपने आपको पेश कर दिया करते थे। यही कारण था कि अल्लाह ने हमारी सरहदों की हर प्रकार के दुश्मनों से हिफाजत की और अतीत में हम गौरव और सम्मान का जीवन गुजार सके। जब हम में इस गुण और आत्मा का अभाव हो गया, तो हम पर दुश्मनों का घेरा भी उसी शिद्दत के साथ तंग होता गया। पहले जहां हमारी मौत सम्मान के साथ शहीदों के रूप में हुई वहीं बाद में हमारी मौत भौतिक और शारीरिक रूप से होने लगी।

अगर हम चाहते हैं कि इस्लाम आज उसी रूप में हमारे सामने जलवा अफरोज हो जाए जैसा कि अतीत में था, तो हमें अवश्य ही अपने पूर्वजों के उन महान गुणों को अपनाना पड़ेगा जिनकी बदौलत उन्होंने उच्च से उच्च स्थान प्राप्त किया था और उनमें से हमें किसी एक को भी नजरंदाज नहीं करना होगा। क्योंकि सच्चाई यही हैः .............. इंसान कुछ नहीं है। सिवाए इसके कि जिस चीज की वह कोशिश करे। (नज्म 53:39)

5.2 मसीह और मेंहदी की आमद को लेकर इस्लामी दृष्टिकोण क्या है?

मसीह हजरत ईसा मसीह के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिन पर अल्लाह की सलामती नाजिल हो। मसीहा का हिब्रू भाषा में मतलब होता है “जिन पर रहम किया गया” इस प्रकार यह नाम उनके लिए उनकी प्रशंसा के तौर पर इस्तेमाल किया गया होगा। यह भी कहा गया कि यह नाम उन्हें कई कारणों से दिया गया थाः वह हर प्रकार के गुनाहों से पूरी तरह सुरक्षित किए गए थे; उनके छूने मात्र से मरीज अल्लाह के फजल से ठीक हो जाते थे; वह लगातार यात्रा करते रहते थे और अल्लाह के दीन को फैलाने का काम किया करते थे। मेंहदी का अर्थ होता है वह व्यक्ति जिसने ईमान कबूल किया और जिसकी सही रास्ते पर रहनुमाई की गई। मेहदी का अर्थ बचाने वाले के तौर पर भी लिया जाता है और उनका उदय उस समय होगा जब पुरी दुनिया में बर्बरात का राज होगा। वह फिर से इंसाफ को कायम करेंगे और इस्लाम की सर्वच्चता को स्थापित करेंगे और वह अहले बैत यानि अल्लाह के नबी के परिवार से संबंध रखने वाले होंगे।8

एक बचाने वाले की प्रतीक्षा उस समय की जाएगी जब ईमान और यकीन खत्म हो जाएगा, धार्मिक तरीकों का पालन सिरे से नहीं किया जाएगा और दीन के तरीके से जिस प्रकार चलने के लिए इंसान को कहा गया है उसका बिल्कुल ही पालन नहीं किया जाएगा। यहूदी और ईसाई भी सारा जीवन एक रक्षक की प्रतीक्षा में रहे और इस दुनिया से रूखसत हो गए खासतौर पर ऐसे समय में जब उन्हें नाइंसाफी और तकलीफों का सामना करना पड़ा। पूरी पैग़म्बरी परंपरा में एक आने वाले रक्षक की भविष्यवाणी की गई है और हमेशा जिनकी प्रतीक्षा की जाती रही है वह या तो पैग़म्बर थे या मसीहा। अल्लाह के नबी मुहम्मद स.अ.व. के बाद लोग अब किसी और नबी के आने का इंतजार नहीं करते। बल्कि वे अब एक रक्षक या दीन को दुबारा बहाल करने वाले का इंतजार कर रहे हैं। वह होंगे मेंहदी अ. जिनका संबंध पैग़म्बर मुहम्मद के खानदान से होगा। उन्हें मेंहदी अल रसूल भी कहा गया है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जिस प्रकार पैग़म्बर मुहम्मद को इस दुनिया में भेजा गया था उन्हें भी उसी प्रकार भेजा जाएगा। उनकी प्रमुखता फोकहा अल अरबा यानि चार महान विधिवेत्ताओं यानि इमाम आजम, इमाम मालिक, इमाम शाफई और इमाम अहमद इब्ने हंबल और दूसरे सारे सूफियों पर होगी और यहां तक कि कुत्ब अल इरशाद यानि उन महान शिक्षकों पर जिन्हें आज से कई शताब्दी पहले यह पदवी दी गई थी।

इस्लाम और मेहदी अ. की प्रतीक्षा

यहूदी और ईसाई धर्म मे तो हमेशा एक मसीहा की प्रतीक्षा की जाती रही है जो मोमिनों को हर प्रकार की तकलीफों से बचाएंगे और दूसरों को ईमान और यकीन की तालीम देंगे। इससे मोमिनों की आध्यात्मिक शक्ति को मजबूत करने में मदद मिली और उनके अंदर यह उम्मीद और चाह भी जगी कि उनका वर्चस्व फिर एक दिन स्थापित होगा। यह भी कहा जा सकता है कि उन जैसे पैग़म्बरों की बड़ी शिद्दत से प्रतीक्षा की जा रही थी। जो लोग उनके इर्द गिर्द जमा हुए वे कहा करते थेः “वह शक्तिशाली इच्छा शक्ति के मालिक थे और पिछले पैग़म्बरों ने जो खुशखबरियां सुनाई थी उनको पुष्ट करने वाले थे।” न्यू टेस्टामेंट के अनुसार (मैथ्यू 3:11) पैग़म्बर जॉन दि बापटिस्ट ने कहाः “मैं वास्तव में तुम्हारे गुनाहों को दूर करने के लिए तुम्हें बापटाइज करता हूं लेकन जो मेरे बाद आएंगे वे मुझसे अधिक शक्तिशाली होंगे; और उनका मुकाबला करने की मेरे अंदर हैसियत नहीं है; वे पवित्र आत्मा और आग के द्वारा आपको बापटाइज करेंगे।” हालांकि वे स्वयं एक पैग़म्बर थे, लेकिन जब उन्होंने इजरत ईसा के बारे में सुना, जो नजेरा कबीले के सबसे खूबसूरत नौजवान थे। “जॉन की खूशखबरी से लोगों का जोश और उनके समुदाय का उम्मीदें भी और बढ़ गयी और ईसा को लेकर जो उनकी गवाही थी उनके अंदर पैग़म्बर को लेकर ईमान और मजबूत, सुदृढ़ और उसमें तेजी आई।

इस्राईल के लोगों को हमेशा एक मसीहा के आने की उम्मीद थी। जब उन्होंने अपनी धार्मिक पुस्तकों में आने वाले मसीहा को लेकर जो भविष्यवाणियां की गई थीं उसे पढ़ा और उनमें सच पाया तो उनके अंदर इस बात की चाह और मजबूत हुई कि मसीहा को लेकर जो उनकी किताबों में वर्णन किया गया है उसके बारे में और गहराई से अध्ययन करें। लेकिन नस्ल दर नस्ल इन धार्मिक किताबों के अनुवाद के कारण उन सच्चाईयों पर कुछ गर्द सी पड़ गई थी और उनके लिए अब उसे ठीक प्रकार से समझना कठिन हो रहा था। इस कारण उनके लिए उसके पीछे के उचित दृष्टिकोण कठिन हो रहा था। इस कारण उनके लिए उसके पीछे के उचित दृष्टिकोण को समझना भी मुश्किल हो रहा था और फिर वे उसी मसीहा का जिसका इंतजार कर रहे थे उनका इंकार कर बैठे। उन लोगों ने उस मसीहा की बात नहीं मानी जो सभी को माफी और रहमदिली के साथ अपने पास बुलाया करते थे लेकिन उनका बस एक ही जवाब था कि तुम वह मसीहा नहीं हो।

हज़रत ईसा अ. के बाद एक दूसरे रक्षक का इंतजार किया जाने लगा। वह थे पूरी इंसानियत के गौरव पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व.। उनके सारे गुण और आचरण के बारे में पहले से ही धार्मिक किताबों में काफी कुछ बता दिया गया था। उनके आने की खुशखबरी स्वयं हजरत ईसा ने दी और बहीरा जो कि एक ईसाई भिक्षू था जब उसे आने वाले रक्षक की सूचना मिली तो उन्होंने पैग़म्बर मुहम्मद से कहा जो अब तक पैग़म्बर नहीं बने थे और जो दमिश्क जाने वाले एक व्यापारिक काफले के साथ थेः “आप अंतिम नबी होंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि काश मैं उस दिन तक जिंदा रहूं जब आप अपनी पैग़म्बरी का एलान करेंगे और मैं आपकी खिदमत करने का मौका पा सकूंगा और आपके जूते ढोने की सादत हासिल करूंगा।” जैद (जो हजरत उमर के चाचा थे और उनके बेटे सईद इब्ने जैद उन दस लोगों में शामिल थे जिनके बारे में अल्लाह के नबी ने जन्नती होने की खुशखबरी सुनाई थी) उन्होंने भी उसी प्रकार की मंशा जाहिर की थी जब वह मृत्यु शैया पर थे, “मैं जानता हूं कि एक धर्म बहुत जल्दी ऐसा आएगा, और उसका साया तुम्हारे सर के ऊपर होगा। लेकिन मैं नहीं जानता कि उस समय तक मैं जिंदा रहूंगा या नहीं।”9 लेकिन बहुत बहुत से दूसरे थे जो उनके ऊपर स्थित मुहरे नबूव्वत को मानने के लिए तैयार नहीं थे और उनका यह कह कर इंकार करते थे, ”तुम वह नहीं हो।” बहुत से दूसरे ऐसे भी थे जिन्होंने उनके संदेशों को केवल इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि यह उनकी इच्छा के प्रतिकूल था या उनके बाप दादा के धर्म के विपरीत था। लेकिन बहुत से सहाबा-एकराम ने उन्हें पैग़म्बर मान लिया क्योंकि वह एक रक्षक के आने के बारे में बहुत दिनों से सुन रहे थे और मदीना के लोगों ने भी उनके साथ अकबा के मुकाम पर अपनी वफादारी का सबूत दिया। किसी मसीहा के आने की बात ने ही पैग़म्बर और उनके साथियों के बीच रिश्ते को मजबूत करने का अहम काम किया। इसी से उनके ऊपर आने वाले पैग़म्बर का प्रभाव भी बढ़ा। हालांकि उनको इस रास्ते से उनके ऊपर आने वाले तरह-तरह का लालच भी दिया जा रहा था। लेकिन उन सहाबा-एकराम ने पूरी कूवत और वफादारी के साथ पैग़म्बर मुहम्मद का बदर और खंदक की लड़ाई में साथ दिया। पैग़म्बर मुहम्मद के व्यक्तित्व के अलावा उनका अपना प्रभाव, उनका संदेश, उनकी कोशिश, उनकी लगन और उनकी बौद्धिक क्षमता ने भी उन्हें इस्लाम की ओर आने में सहायता पहुंचाई। लेकिन इसके साथ ही हम इस सच्चाई को भी नकार नहीं सकते कि उनके आने को लेकर जो प्रतीक्षा थी उसने में भी इस कार्य में बेहतरी लाई और उनके संदेशों को फैलाने में सहायता पहुंचाई।

मेंहदी मसीह को लेकर जो आने की भविश्यवाणी की गई है उसका धर्म में कहां वर्णन मिलता है?

पैग़म्बर मुहम्मद की सैकड़ों हदीसें हैं जिसमें यह बताया गया है कि जब आखरी जमाना आएगा तो मसीह इस दुनिया में आऐंगे। कम से कम चीलीस ऐसी हदीसें हैं जिसे प्रमाणिक हदीसों की कोटि में रखा गया है और विशेषज्ञों ने उनकी प्रमाणिकता पर अपनी मुहर भी लगा दी है। उसके अलावा 20 हदीसें “हसन” के अंतर्गत रखी गई हैं, उनको लेकर किसी प्रकार का शुब्हा नहीं किया जा सकता। बीस से तीस हदीसें ऐसी हैं जिनकी प्रमाणिकता कमजोर साबित हुई है। उसका एक उदाहरण हम यहां प्रस्तुत करते हैं। बुखारी, तिरमिजी, और मसनद में अल्लाह के रसूल के हवाले से फरमाया गया है, “अल्लाह की कसम जिसके हाथ में मेरी जान है, हजरत मरियम के बेटे हजरत ईसा जरूर तशरीफ लाएंगे। वह सलीब को तोड़ डालेंगे, सूवर को कत्ल करेंगे, जजिया टैक्स को निरस्त करेंगे और बड़ी मात्रा में चीजों को खैरात करेंगें धन धान्य की इतनी अधिकता हो जाएगी कि कोई दान की चीज लेना नहीं चाहेगा। “एक दूसरी हदीस में, जिसे मुस्लिम और अबू दाऊद में बयानन किया गया है, पैग़म्बर मुहम्मद ने फरमाया, “जब मरियम के बेटे हजरत ईसा तशरीफ लाएंगे, तो मुसलमानों के शासक उनसे कहेंगे, “आईए, आप हमारी नमाज की इमामत कीजिए।” हजरत ईसा जवाब देंगे, “नहीं, तुम एक दूसरे के शासक हो। यह मुस्लिम कौम पर अल्लाह की रहमत है।”

कुरआन में ऐसी कोई स्पष्ट आयत नहीं है जिसमें इस विषय पर कोई बात की गई हो। हालांकि कुछ महत्वपूर्ण विद्वानों ने जैसे भारत में काश्मीरी, जिन्होंने इस परंपरा की हदीसों को संगृहित किया, है उन्होंने कुरआन से ऐसी चार आयतों का हवाला दिया जिससे कयामत के करीब के जमाने में हजरत मसीह के आने का संकेत मिलता है।

वह लोगों से गहवारे और अपनी जवानी के दिनों में बातें करेगा। वह नेक लोगों में से होगा।” (अल इमरान 3:46)

और अहले किताब में कोई भी ऐसा न बचेगा जो उनकी मौत से पहले उन पर ईमान न ले आए। (निसा 4:159)

जिस दिन मैं पैदा किया गया उस दिन सलामती नाजिल हुई और जिस दिन में मरूंगा और जिस दिन में दुबारा उठाया जाऊंगा। (मरियम 19:33)

और हजरत ईसा कयामत के आने की एक निशानी होंगे। (जख़रफ़ 43:61)

हम हदीसों से दो मिसालें मेहदी के बारे में भी दे सकते हैं: “मेहदी हम में से हैं, यानि अहले बैत से। अल्लाह उन्हें एक रात में उन्हें फतह नसीब करेगा। मेहदी फातिमा की औलाद में से होगा।”10 “यहां तक कि दुनिया को खत्म होने में अगर एक दिन भी बचा रहेगा, तो अल्लाह इस दुनिया में जुल्म का शासन खत्म करने के लिए अहले बैत यानि पैग़म्बर के घराने से एक व्यक्ति को भेजेगा।”11

अल्लाह ने अपनी रहमत और फजल से अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न लोगों को भेजा ताकि वे उसके संदेशों को दुनिया वालों तक पहुंचाए। उनमें पैग़म्बर, सूफी संत, खलीफा, उच्च कोटि के शिक्षक और हजरत मेहदी जैसे लोग शामिल थे जिन पर अल्लाह की खूशूसी रहमत होगी। ऐसे लोगों ने भिन्नता को दूर किया और एकता की बुनियाद रखी और ईमान को न केवल कायम किया बल्कि उसको बचाए रखा। बदीउज्जमां मेहदी अल अब्बासी को एक उदाहरण के तौर पर पेश करते हैं राजनीतिक रणभूमि में, जैसे अब्दुल कादिर जीलानी, शेख नक्शबंदी, अक़ताब अल अरबा (चार महान सूफीः अब्दुल कादिर जीलानी, अहमद बदावी, अहमद रफाई, इब्राहीम बेसूकी) और आध्यात्मिक क्षेत्र से बारह इमाम को, यह कहते हुए, “जैसा कि यह अल्लाह का तरीका है, वह अहले बैत से एक उच्च कोटि के इंसान को पैदा करेगा, जो सबसे अधिक इंसाफ कायम करने वाले होंगे, वह महान पथ प्रवर्तक, आजाद, मेहदी, शिक्षक एवं महान संत जो कयामत के जमाने के करीब सख्त तकलीफ से घिरे लोगों के बीच आएंगे।” बदीउज्जमां मेहदी अ. को लेकर जो कमजोर हदीसें बयान की गई हैं उससे किसी प्रकार से आलोचना न की जाती है? कुछ विद्वान तो यहां तक मानते हैं कि इब्ने अल जौजिया ने जो प्रमाणिक हदीसें एकत्र की हैं उनमें कुछ हदीसें गढ़ी हुई हैं। लेकिन कोई भी हदीस ऐी नहीं है कि गलत संदेश देती हो। एक कमजोर हदीस केवल उसे कहा जाता है जिसका सूत्र प्रमाणिक तौर पर उसके पहुंचाने वालों के द्वारा पैग़म्बर मुहम्मद तक नहीं पहुंचता। लेकिन हो सकता है कि उसका संदेश सच को जाहिर करता हो।”12

हज़रत ईसा अ. की वासी

कुछ लोग मानते हैं कि हजरत ईसा का एक इंसान के रूप में दुबारा इस दुनिया में आना अल्लाह की हिकमत के खिलाफ बात है। हालांकि, वे मानते हैं कि वास्तव में वह एक सामूहिक व्यक्तित्व के रूप में प्रकट होंगे। कुछ दूसरे विद्वानों ने कुरआन की संबंधित आयतों और हदीसों को किसी और तरीके से व्याख्यायित किया है। बदीउज्जमां उसके विपरीत, हज़रत ईसा के आने की संभावना से इंकार न करते हुए वह इस बात पर अधिक बल देते हैं कि आने वाला व्यक्ति महान आध्यात्मिक व्यक्ति होगा और उसको ईसाई धर्म और इस्लाम के लिए एक अनुरूपता के तौर पर देखते हैं। वह यह भी कहते हैं कि हजरत ईसा का आना कोई बहुत दूर की बात नहीं मालूम होती यानि वह जल्दी ही तशरीफ ला सकते हैं: “वह महान अल्लाह, जो हर समय में फरिश्तों को आसमान से जमीन पर भेजता है, जो कभी-कभी उन्हें इंसानों के रूप में बदल देता है जैसा कि दीहिया के एक साथी थे, वह आध्यत्मिक दुनिया से इंसान के रूप में किसी फरिश्ते को भेजता है और दिवंगत सूफियों को किसी कल्पित शरीर में, वह अवश्य ही ईसा को इंसानी शक्ल में भेजेगा जो हमारे बीच कयाम करेंगे और यहां तक कि मौत के बाद की जिंदगी के अंतिम छोर पर भी पहुंच चुके होंगे, उन्हें बेहतर परिणाम के लिए दुनिया में भेजेगा।” बदीउज्जमां फिर उसक अधिक स्पष्टीकरण नहीं देते जो कुछ रिपोर्टों में मौजूद है।

मेहदी होने का दावा करना एक भटकाव है

मेहदी और मसीह विषय को न केवल अपने निहित स्वार्थ के लिए गलत तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं बल्कि साथ ही मोमिनों को इसी के जरिये से बदनाम करने की कोशिश भी करते रहे हैं। उनमें जो लोग इस प्रकार का दावा करते हैं उन्हें कुछ ताकतों के द्वारा आगे धकेल दिया गया है और उन्हें मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है।

मेरा मानना है कि एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व के रूप में मसीह का अवतरित होना कोई दूर की बात नहीं है। वह निकट भविष्य में ही प्रकट होंगे। ऐसा संभव हो सकता है कि वह आत्मा जाहिर हो और कोई उनका विरोध न करे। उनका आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में आने का मतलब होगा कि वह पूर्ण रूप से दया एवं रहम के प्रतीक होंगे और इंसाफ को कायम करेंगे और इंसानों में आपस में मेल मुहब्बत के साथ रहने लगेंगे। इस प्रकार की चीजें आज दिखाई भी देनी लगी हैं। मुसलमानों को कई बार गिरजाघरों में आकर कुरआन पढ़ने के लिए निमंत्रण दिया जाता है और अब इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि मुहम्मद स. अल्लाह के पैग़म्बर हैं और कुरआन अल्लाह की किताब है। हो सकता है कि कुछ लोग यह ऐलान करने के लिए सामने आएं जैसा कि ”मुस्लिम ईसाई”। हो सकता है कि यह मसीह के आने की एक भूमिका की तरह हो।

मेहदी और मसीह को लेकर जो आशा की जाती है उसका गलत इस्तेमाल

पूरी इस्लामी तारीख में ऐसे अनेक लोग हुए हैं जिन्हें उनके सर्वोच्च गुणों के कारण मेहदी की श्रेणी के व्यक्ति में रखा जा सकता है। अब्बासी दौर के मेहदी, जिन पर अल्लाह की सलामती नाजिल हो, अगर हम उनके महत्वपूर्ण सुधारों पर नजर डालें तो उन्हें मेहदी की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिस सीधे रास्ते पर वह चल रहे थे, अपने पूर्व के लोगों के लिए उनमें जिस प्रकार आदर और सत्कार की भावना थी, सहाबा-एकराम के लिए उनके दिल में जो एहतेराम का जज्बा था और धार्मिक विषयों को लेकर उनके अंदर जो सीधे एवं संयत विचार थे। उम्मयद धार्मिक विषयों को लेकर अजीज ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें मेहदी की श्रेणी में रखा जा सकता है। उसके साथ कुछ महत्वपूर्ण विद्वानों को उनके जैसा ठहराया जा सकता है जैसे अबू हनीफा से इमाम रब्बानी फारूक अल सरहंदी और उनके बाद इमाम गजाली और मौलाना खालिद बगदादी, क्योंकि उनके गुण मेहदी अ. जैसे ही थे। इन लोगों ने इस्लाम की सच्चे अर्थों में सेवा की और उनके अपने कोई निजी स्वार्थ नही थे और न ही कभी उन लोगों ने यह दावा किया कि वह मेहदी हैं। लेकिन जब लोगों ने उनकी नेकियों के महत्व को समझा तो उनके इर्द गिर्द जमा होने लगे। हालांकि हमेशा कुछ ऐसे अवसरवादी भी थे जो अपने फायदे के लिए उस स्थिति से लाभ उठाना चाहते थे।

यहां तक कि पैग़म्बर मुहम्मद हम लोगों के बीच थे, बहुत से झूठे लोग भी सामने आ चुके थे जैसे मुसैलिमा, तलयहा, असवद अल अंसी और साजाह जिन लोगों ने नबी होने का दावा किया था। उसके साथ ही हर जमाने में ऐसे कुछ लोग हुए हैं जिन्होंने यह दावा दिया किया कि वे दुनिया के अंत होने के समय प्रकट होंगे। ठीक उसी प्रकार से जैसा कि ऊपर बयान किए गए लोगों के बार में बताया गया है और आठ दज्जाल जिसने यह दावा किया कि “मैं मैग़म्बर हूं।” पैग़म्बर मुहम्मद की मौत के तुरंत बाद। हर जमाने में बीमार जेहनियत के कुछ लोग ऐसे पेदा होते हैं जिन्होंने अपने को मसीह साबित करने की पूरी कोशिश की है और जो यह बताने की कोशिश करते हैं कि पैग़म्बर मुहम्मद अरब के बीच भेजे गए थे और वे पूरी दुनिया के लिए भेजे गए हैं। उसके साथ ही, मेहदी अ. को लेकर जो हदीसें बयान की गई हैं उनमें बताया गया कि पैग़म्बर मुहम्मद ने फरमाया “मेरे परिवार से एक शख्स पैदा होगा जिसका नाम मेरे नाम से मिलता जुलता होगा।”13 यानि यह इशारा दिया गया कि मेहदी का नाम स्वयं उनके अपने नाम के जैसा ही होगा, उदाहरण के तौर पर, मुहम्मद या अहमद। बहुत से लोगों ने अपने को मेहदी साबित करने के लिए अपने नाम में बदलाव करने की धृष्टता भी की।

उदाहरण के तौर पर जैसा कि शताबी ने बयान फरमाया है, अबू मंसूर जो मंसूरिया संप्रदाय का शासक था, उसने अपने नाम के आगे प्रतिष्ठा स्वरूप “किस्फ” लगा रखा था जिसका अर्थ होता है टुक्ड़ा, जिसने अपने को मसीह होने का दावा किया था और कुरआन की यह आयत इसे पुष्ट करती है “आसमान से कोई टुक्ड़ा ज बवह गिरता हुआ देख लेते तो कहतेः “बादल अपने जमघट के साथ जमा हो गया है।” वह उसे अपने से जोड़ कर देखता है। (तूर 52:44) जब उसने लोगों को यह बताना शुरू किया कि वह किस्फ हैं तो लोग उसके आस पास जमा होने लगे मानों वह वास्तव में आसमान से नाजिल हुआ हो। आयत के वास्तविक अर्थ को नजरंदाज करते हुए, केवल आसमान से जो चीज गिर रही है उसको सामने रखते हुए, उसने तर्क दिया कि आसमान से जो गिरने वाली चीज है वह स्वयं है जो एक पत्थर के रूप में इंसानों पर नाजिल हुआ है। उसी प्रकार जैसा कि शताबी ने उल्लेख किया, राफजी संप्रदाय के उबैदुल्लाह, जिसने अपने बारे में मेहदी होने का दावा किया था। उसके दो सलाहकार थे, एक नसरूल्लाह ओर दूसरा फथ। नसरूल्लाह का अरबी में अर्थ होता है अल्लाह की मदद, फथ का अर्थ होता जीत। अपने पद को तर्कसंगत ठहराने के लिए, इस तथाकथित मेहदी ने यह कह कर उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश की कि “आप उनमें से एक हैं जिसका बयान सूरः नस्र अध्याय में हुआ है; और वह आयत हम लोगों के बारे में ही इशारा करती है, यह वादा करती है कि इस्लाम को लोग काफी संख्या में कबूल करेंगे और वे हमारी कोशिशों से इस ओर आएंगे।”

जब अल्लाह की मदद और जीत आती है, जब आप देखें कि अल्लाह के दीन में भारी संख्या में लोग दाखिल हो रहे हैं, तो अल्लाह की प्रशंसा बयान करो और उसे माफी तलब करो। क्योंकि वही माफ करने वाला है। (नस्र 110:1-3)

ये दो उदाहरण इस बात को समझाने के लिए काफी हैं जिसे शताबी ने उधृत किया है किस प्रकार कुरआन की इन आयतों को लोग अपने फायद के लिए इस्तेमाल किया करते थे और किस प्रकार वे आसानी से अव्यवस्था का शिकार हो सकते हैं और किसी खास क्षेत्र में तबाही और खून खराबा मचा सकते हैं।

एक रक्षक के आने का इंतजार और उसका लेकर जिस प्रकार अपने हित साधे गए यह केवल धार्मिक जिंदगी में ही सीमित नहीं था। कुछ लोगों ने आर्थिक दृष्टि से था उनका इंतजार कार्ल मार्क्स के आगमन के साथ खत्म हुआ वह यूरोप में उस समय प्रकट हुए जब पूरा यूरोप आर्थिक उलझाव से जूझ रहा था और जब कामगारों ने संघर्ष शुरू किया तो फिर खून की होली खेली गई। ऐसे लोग उनकी किताब दास कैपिटल को काफी महत्व देते हैं और साथ ही दूसरी किताब कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो को जिसे उसने ऐंजेल्स के साथ मिल कर लिखा था। और इस प्रकार उसे मानवता के रक्षक के रूप में आदर देते हैं। खास तौर पर कामगार वर्ग के लिए। डॉ. इकबाल ने अपनी नज्म पयामे मशरिक में कार्ल मार्क्स के बारे में निम्नलिखित बातें लिखी हैं: “एक पैग़म्बर जिसके पास कोई भी पवित्र किताब नहीं है जो लोगों के विचार को सामने रखता है।” वह साथ ही कार्ल मार्क्स को अज्ञानी, असभ्य और नास्तिक व्यक्ति मानते हैं; जिकसी सारी कोशिशें बस बहुत तरह की आरजुओं को महज पूरा करना है; और वास्तव में इस मार्क्स को कुछ लोगों ने मसीह की संज्ञा दी और उसका उसी प्रकार सत्कार किया। उसी प्रकार लेनिन से लेकर ट्रास्की तक को मसीहा कह कर पुकारा गया। किसी समय में, इस्लामी दुनिया में भी, हमें एक रक्षक के तौर पर दुनिया के कई भागों में देखा गयाः मिस्र से लेकर सुडान तक और सीरिया से लेकर सोमालिया तक। कुछ लोग तो अपनी अज्ञानता और कुफ्र में यहां तक बढ़ गए और यह कहने लगे कि “पैग़म्बर मुहम्मद केवल अरबों या मदीना वासियों के लिए भेजे गए थे और जो आए हैं वह हमारे लिए आए हैं।”

राफजी के अनुयायियों में से बहुत से मेहदी अब तक सामने आ चुके हैं। उसी प्रकार जिसने मोवहेदीन राज्य की स्थापना की वह मेहदी था। उम्मया औ अब्बासी दौर में कई प्रकार के राजनीतिक समूह सामने आए और जो इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि उनके नेता मेहदी है। जैसे फातिमी राज्य के पहले आजाद लोग जो शिया समुदाय से आए और जो इस्माईली कहलाए, जिसे उत्तरी अफ्रीका में स्थापित किया गया था और बाद में मिस्र के ऊपर अपना अधिकार कायम किया, उनके मानने वाले उन्हें मेहदी ही मानते थे। वह एक बच्चे को तख्त पर रख कर आदर से उसके इर्द गिर्द जमा हो गए और कहने लगे कि यह पैग़म्बर मुहम्मद के नवासे हैं। इस पकार मेहदी का शोषण किया या नि मसीह से संबंधित मामले का। उसके साथ ही फातमियों ने मुस्लिम समुदाय से अलग अपनी संप्रभुता का ऐलान कर दिया था और ऐसे समय में ऐसा हुआ था जब मुसलमानों को ईसाई आतातारियों एवं मंगोलों दोनों से शदीद खतरे का सामना था।

जहां तक अभी हाल के इतिहास की बात है, मेहदी मसीह विषय लोगों के लिए खेल की तरह बन कर रह गया है। अनेक लोगों ने अपने हित के लिए इसे इस्तेमाल किया और उसका शोषण किया, चाहे वह सोमालिया का मेहदी हो या सूडान का; पहले तो अंग्रेजों ने मार डाला और उसे जला कर उसकी राख को नील में बहा दिया था- डॉ. अकबर ने इस बारे में काफी विस्तार से लिखा है। एक दूसरे व्यक्ति बहाउल्लाह थे जिन्होंने अपने को मेहदी होने का दावा किया था और गुलाम अहमद जिन्होंने हिंदू योग और साधना में पनाह ढूंढ रखी थी, वह कहते थे कि उनके अंदर आत्मा की शक्ति को प्रकट करने की ताकत है और जब अव्यवस्थित हालत में होते तो उन्हें मतिभ्रम होता था। इस अंतिम व्यक्ति ने अपने को मुजद्दिद होने का दावा किया था जिसका अर्थ होता है धर्म का पुनरूत्थान करने वाला। पहले उसने कहा कि वही मेहदी है जिसके बारे में वादा किया गया है, इमाम और अंत में अपने को मसीह कहा। उसके बारे में वादा किया गया है, इमाम और अंत में अपने को मसीह कहा। उसके बाद एजिजा मुहमम्द का आगमन हुआ जिसने अपने आपको पैग़म्बर होने का ऐलान किया।

एक खास बात जो ध्यान देने की है कि शीयाओं ने हमेशा ही इस एजेंडे को जीवित रखा और यह ऐलान किया क “बारहवें इमाम में से एक इमाम अभी जीवित अवस्था में कहीं छुप कर रह रहा है ताकि वह बाद में प्रकट हो सकें।” “यह अजीब बात है कि वे एक ऐसे रक्षक की उम्मीद भी कर रहे थे जो उस समय भी उनकी मदद करने के लिए नहीं आए जब अब्बासियों का जुल्म उन पर काफी बढ़ गया था और वे यही आए लगाए रहे कि अचानक वह काफ पहाड़ के पीछे से प्रकट होंगे।” खासतौर पर दज्जाल के आगमन के समय, जो अब्बासियों से भी बड़ा शैतान उनके लिए साबित होगा। उनकी इस उम्मीद की जांच की जानी चाहिए और उनके ईमान का जाएजा लिया जाना चाहिए।

पूर्ण हेरेकेल्स की आस हमेशा उन कौमों को रही है जो हद से ज्यादा सताए और शोषित थे। बहुत से आलसी और कमजोर किस्म के लोग जिन्होंने अपनी अमकर्मन्या के कारण पूरी तरह अपने को अंधविश्वास के हवाले कर दिया उन्हें खासतौर पर हेरेकेल्स का इंतजार है जो उनकी हिफाजत के लिए आसमान से नाजिल होगा। हालांकि सुन्नी समुदाय के लोगों के यहां भी मेहदी का इंतजार किया जा रहा है; लेकिन जहां तक अहले सुन्नत के लोगों ने मेहदी का मतलब समझा है उनके अंदर कोई सुपरनेचुरल प्रकृति नहीं होगी। बल्कि उसके विपरीत उनका मानना है कि वे एक इंसाफपसंद हुक्मरां होंगे जो समाज को इस्लाम के मार्ग पर ले चलने का काम करेंग और उनके अंदर विज्ञान, हृदय और आत्मा का सुंदर सामंजस्य होगा।

यह आश्वयक है कि अपने शोषण के प्रति चौकन्ना रहें

इतिहास के पूरे काल में हमेशा शोषण और अपमान का शिकार के कारण, मेहदी और मसीहा में जो यकीन है उसका अभी भी गलत इस्तेमाल हो सकता है। क्योंकि बहुत से ऐसे झूठे और फरेबी सामने आ सकते हैं जो अपने को मेहदी और मसीह होने का दावा करेंगे। अगर कोई इंसान मसीह होने का दावा करता है जैसा कि गुलाम अहमद ने किया था, तो चाहिए कि ईमान के तराजू पर उनके दावे का अध्ययन करें और उसे प्रमाणिक करने की कोशिश करें आखिर उनका इस प्रकार का दावा करने के पीछे मकसद क्या है? क्या वह यह कहना चाहते हैं कि मसीह स्वयं उनके अंदर आ गए हैं, जैसा कि कुछ लोगों ने मसीह को ऐसा दिव्य पुरूष समझ रखा है और अगर वह ऐसा ही सोचते हैं तो फिर यह मुसलमानों के यकीन और अकीदे के बिल्कुल फिलाफ बात है। ऐसे लोगों के लिए भटकाव शब्द का इस्तेमाल भी नाकाफी होगा। ऐसे दावे का कुफ्र के दायरे में रखा जाएगा।

इस प्रकार का दावा और बातें करके एक इंसान हो सकता है कि यह कहे कि वह एक आध्यात्मिक यात्रा पर है जो मसीह के दायरे में घूम रहा है। जो लोग उनको देख सकते हैं और पहचान सकते है कि वह एक प्रकार से मसीह के गुण से नवाजे गए हैं। उनके कहने का यही मतलब है, तो यह एक विरोधाभासी बात है क्योंकि अगर कोई इंसान इस मर्तबे का पहुंच जाए तो वह इस प्रकार का दावा स्वयं नहीं करेगा। उसके साथ ही इतना बड़बोलेपन वाला दावा करना कोरा अंहकार ही माना जाएगा।

अब्दुल कादिर जीलानी, हो सकता है कि उनको मेहदी कहा जाए हालांकि उन्होंने स्वयं भी ऐसा दावा नहीं किया। उसके साथ ही बहाउद्दीन नक्शबंदी को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है मगर उन्होंने भी कभी अपने बारे में ऐसा गुमान नहीं किया। इमाम रब्बानी ने तो यहां तक अपनी उदारता का परिचय दिया और कहा कि वह तो एक बेहतर इंसान कहलाने के लायक भी अपन को नहीं समझते। अगर खुल कर बात की जाए तो यही कहा जाएगा तो लोग आध्यात्मिक शिखर पर पहुंचे हैं उन्होंने कभी भी अपने बारे में ऐसी बातें नहीं कहीं।

ऐसे दावों के लिए बेहतर विवेचना की जरूरत हैः क्या यह एक गलत मेल है कि उसी प्रकार की आध्यात्मिकता के स्तर से उसे जोड़ कर देखा जाए?15 क्या यह गलती है जो समाज के द्वारा हद से बढ़ कर कसी के बारे में राय कायम कर लेने से पैदा हुई है? या क्या यह उसी समाज की भ्रम पैदा करने वाली आवाज है? या क्या इसका यह कारण है कि वह आदमी सोचता है कि उसे अल्लाह ने अपनी ओर से खासतौर पर चुन लिया है? अगर सममुच ऐसा वे मानते हैं और यह दावा करते हैं कि वे मेहदी हैं, तो इसे स्पष्ट रूप से उनका कोरा अहंकार, भटकाव और आधारहीन दावा ही माना जाएगा जिसे पूरी तरह नकार दिए जाने की जरूरत है। अगर उसी प्रकार से वे दावा करते हैं तो इसे भी गलत दर्जे का कुफ्र माना जाएगा। कोई इंसान यह दावा नहीं कर सकता कि वह ही मसीह है। जिस प्रकार हजरत ईसा अ. का आगमन हुआ था, हम से फिर बिछड़ गए और एक पैग़म्बर के तौर पर अपना काम किया। इस प्रकार को कोई भी दावा करना कि वह मसीह है सरासर गलत है और उसका यह दावा करना कि वह पैग़म्बर है उसे ईश निंदा ही माना जाएगा। अगर कोई इंसान किसी विशेष मां बाप की औलाद के तौर पर पैदा होता है और यह दावा करता है कि वह मसीह है, तो इसका यह मतलब लिया जाएगा कि उसे दुबारा अवतरित कया गया है जिसका इस्लामी मान्यता के अनुसार कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार के किसी भी दावे को अविश्वास और भटकाव की श्रेणी में ही रखा जाएगा। अगर इस नजरिये से देखा जाए तो कोई भी इंसान इस प्रकार की बात नहीं करेगा अगर वह सही मानों में कुरआन और हदीस पर अमल करने वाला है।

जैसा कि मैंने पहले भी जिक्र किया है, बदीउज्जमां सईद नुर्सी ने एक विचार सामने रखा कि अगर इस्लाम को किसी चीज की जरूरत होगी, ताकि दुनिया के भिन्न-भिन्न भागों में अपने को फिर वास्तविक रूप में प्रकट कर कसे तो मसीह प्रकट होंगे और वह दुनिया के किसी भी भाग से प्रकट हो सकते हैं। फिर भी उनके सामान्य दृष्टिकोण पर नजर डालने के लिए, उन्होंने ईसा को एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व के तौर पर व्याख्यायित किया है। उसके अलावा कह कहते हैं कि मसीह का प्रतिनिधित्व कोइ्र समूह करेगा या समाज का कोई एक भाग। फिर भी, इस संदर्भ में, कोइ्र विशेष नाम देना, किसी और के अंदर हजरत ईसा का अवतरित होना, और यह ऐलान करना कि अमुक आदमी मसीह है, तो ऐसा व्यक्ति महान विजेता मेहमद द्वितीय हो सकता है, या इमाम रब्बानी, लेकिन यह सब अविश्वास के दायरे में ही आएगा। आम मोमिन तो इस प्रकार की बात मुंह से निकालने से भी खौफ जाएगा; बल्कि उसे पूरी तरह नजरंदाज करने के लिए हमेशा चौकन्ना दिखाई देंगा।

कुछ लोग उन लोगों के बारे में जिनको बढ़ा चढ़ार कर राय कायम कर लेते हैं, उन्हें मेहदी कह बैंठें। जैसा कि हमने इस बिंदु पर बल देने की कोशिश की है, फिर अगर मेहदी को एक पुरूष के रूप में दुनिया में आना ही है तो वह एक पैग़म्बर के रूप में आएंगे। बल्कि वह इस्लाम पर चलने वपाले होंगे और मुहम्मद स.अ.व. जो अंतिम पैग़म्बर हैं उनके संदेशों का पालन करेंगे, यह बात को जाहिर करती है है कि न तो वह एक पैग़म्बर के रूप में आएंगे और न ही किसी और के अंदर उनकी आत्मा साने आएगी। अगर उन्हें एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व के रूप में ही प्रकट होना होता, जो लोग आध्यात्मिक पुरूष हुए हैं और न ही ऐसे महान लोग कभी इस प्रकार का दावा करते दिखाई देंगे। उसी प्रकार वे लोग जिनके अंदर मेहद अ. जैसे गुण नजर आते हैं वे भी कभी मेहदी होने का दावा नहीं करेंगे और न ही इस प्रकार की बातें करेंगे। इस प्रकार, अगर वे स्वयं विश्वास नहीं करते इस बात पर कि वे मसीह हैं तो यह माना जाएगा कि अगर उन्होंने उनकी बातों को नहीं नकारा तो यह समझा जाएगा कि वह भी कुफ्र का कारण बने हैं। ऐसे लोगों को खामोश शैतान ही कहा जाएगा। जैसा कि अल्लाह के नबी ने अपने हदीसों में फरमाया है।16 वास्तव में अगर किसी को मसीह कह कर पुकारा जाता है वह खामोश रहता है और लोगों को इस भटकाव के प्रति आगाह नहीं करता, तो इस प्रकार का आदमी छुपा हुआ शैतान ही माना जाएगा और अगर उस प्रकार का आदमी यह दावा करता फिरे कि वही मेहदी है, तो निश्चित रूप से उसने तबाही अपने सर मोल ली है और वह सही रास्ते से भटक गया है। मुसलमान तो किसी भी हाल में इस प्रकार के दावे की पुष्टि नहीं कर सकते।

इस विषय को बदकिस्मती से हर जमाने में बुरी तरह गलत तौर पर इस्तेमाल किया गया और धर्म के दुश्मनों ने तो एक कारगर हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है, उससे पक्के ईमान वालों को बदनाम करने की कोशिश की है। उसके साथ ही, कुछ लोग जिन पर कुछ विशेष ताकतों का हाथ होता है, वे मुसलमानों के खिलाफ काम करने के लिए इस प्रकार का दावा करते हुए उठ खड़े होते हैं। इस प्रकार के मसले निकट सा दूर के भविष्य में भी पेश आ सकते हैं। जैसा कि हाल और कुछ पुराने दिनों में ऐसा भविष्य में भी पेश आ सकते हैं जैसा कि हाल और कुछ पुराने दिनों में ऐसा होता रहा है। तुर्की में, जो लोग सीधे रास्ते से भटक गए हैं, वे लोग जिनके अंदर बिल्कुल ही ईमान नहीं है और जो डिप्लोमा धारण करने वाले हैं मगर पहले दर्जे के जाहिल हैं, जो हिंसा को बढ़ावा देते हैं और जो तुर्की के भाग्य का फैसला करते हैं, हो सकता है कि मुस्लिम देश भी सारी दुनिया में मेहदी-मसीह के आगमन का लाभ उठाएं और अपने फायदे के लिए उसका गलत इस्तेमाल करें। ऐसा मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर बेवकूफ बना कर किया जाएगा और सच्चे मुसलमानों का खात्मा करने की कोशिश करेंगे। आज मुस्लिम दुनिया में जैसा देखा जा रहा है इस प्रकार का खतरा काफी बढ़ गया है क्योंकि आम आदमी पूरी तरह त्रस्त है। इसलिए ऐसी किसी भी साजिश के प्रति में चौकन्ना रहने की जरूरत है और इस बात के लिए भी सचेत रहने की जरूरत है कि ऐसे किसी विचार का गलत इस्तेमाल न किया जाए।

5.3 आखिर वे किस प्रकार के लोग हैं जो बातचीत की हर प्रक्रिया का विरोध करते हैं जो खारजियों, करामातियों और अराजकतावादियों की दृष्टि से उपयुक्त है?

करामतवाद विधर्मियों की ओर से चलाया गया एक गुप्त गत है जिसकी स्थापना हमदान इब्ने करमात ने उन्नीसवीं शताब्दी में की थी। उसने लोगों की गरीबी से लाभ उठाया और विशेष रूप से इराक और उसके आस-पास के क्षेत्रों में काफी सक्रिय था। सामूहिक धन की बात करता था और अमीरों के माल में अपना हिस्सा होने का दावा करता था। ये लोग बाहरी तौर पर उनके लिए धार्मिक दिखाई देते रहे हों, लेकिन गुप्त रूप से उनका अपना एक आर्थिक सिद्धांत था और उनकी अपनी राजनीतिक अभिलाषा थी जिसे वे पूरा करना चाहते थे। उन लोगों अब्बासी खलीफाओं के खिलाफ बगावत करने की कोशिश की, उनके खिलाफ लोगों को भड़काते रहे, कई सालों तक सुन्नी मुसलमानों पर यातनाएं करते रहे और बहुतों तंग किया करते थे और पवित्र शहर मक्का पर भी हमला किया था और यहां तक क वे खाने-काबा से हजरे असवद नामक पत्थर को भी चुरा कर बसरा ले आए थे।

वे शादी विवाह की संस्था में विश्वास नहीं करते थे और व्यभिचार को एक बढ़िया काम के रूप में प्रचारित किया करते थे। वे औरतों के साथ ऐसा बर्ताव करते थे मानों यह सब की सामूहिक जागीर हो, नौजवानों को अय्याशी की राह पर लगाया करते थे और शराब पीना उनके लिए एक पवित्र एवं वैधानिक काम था। सारांश के तौर कहें तो वे पूरी तरह अपनी इच्छाओं के गुलाम बन चुके थे इसलिए उन लोगों ने अपने हिसाब से एक नए मजहब की रूपरेखा पेश की और उन लोगों ने यह ऐलान कर दिया कि जो लोग उनका पालन नहीं करेंगे वे जहन्नम में जाएंगे और इस प्रकार मुसलमानों को काफी लंबे समय तक बांटने का काम किया। दूसरे अर्थ में देखा जाए तो उन्हें अपने समय का अराजकतावादी या शून्यवादी कहा जा सकता है।

आधुनिक खारजी

खारजी एक अलग इस्लाम विरोधी गुट था जिसने हजरत अली पर पहले तो इल्जाम लगाया कि उन्होंने मध्यस्त को कबूल कर लिया और सिफ्फीन के युद्ध में जो समझौता हुआ था उसे स्वीकार कर लिया और दूसरा गलत काम यह किया कि हजरत मुआविया को उन लोगों ने खिलाफत नहीं सौंपी इस प्रकार वे बड़े गुनाह के भागी बने। उन लोगों ने उन सभी को जो उनकी बातों से सहमत नहीं थे, जिनमें सहाबा-एकराम भी शामिल थे, काफिर घोषित कर दिया। हालांकि वे जाहिरीतौर पर इस्लाम के मानने वाले थे, लेकिन उनकी दृष्टि बेहद ही तंग थी। कोई भी काम बिना ज्ञान और सूझबूझ के किया करते थे; वे पूर्ण रूप से पथभ्रमित हो गए थे, दुश्मनी पर उतर आए थे और उनमें असहनशीलता पैदा हो गई थी और हिंसा और कत्लेआम को ही अपना ओढ़ना बिछौना बना लिया था। वे अपने ही नारों और कार्यों के आगे भटक गए थे और फिर अपनी बेचैन और विप्लव पर उतारू आचरण के कारण एक नए धर्म की बुनियाद डाली थी। वे ज्ञान से नहीं बल्कि अपने ही नारों से संचालित होते थे और अपनी प्रतिक्रियावादी रूझान के आगे बेबस थे। हालांकि वे समय समय पर कुरआन पढ़ते थे और यह महज उनका दिखावा मात्र था क्योंकि हमेशा वे अर्थ इस प्रकार निकाला करते थे जो उनकी अपनी सोच के मुताबिक हो और उनके मन के खिलाफ जो व्याख्याएं होती थीं उसको नकार देते थे। जो लोग उनकीह बातों से सहमत नहीं होते थे उन्हें काफिर ठहरा दिया जाता था और बेदर्दी से उनका खात्मा कर दिया जाता था।

आज हम कुछ लोगों को देखते हैं कि उनका व्यवहार उन ही करामातियों एवं खारजियों जैसा हो गया है। जो किसी भी बातचीत में रोड़ा डालते हैं और शांति की प्रक्रिया को रोकते हैं और दोस्ती को बढ़ावा देने में बाधाएं पहुंचाते हैं। हालांकि वे अपने मुसलमान कहते हैं, लेकिन फिर भी वह इस्लाम पर हमला करने से पीछे नहीं रहते और वे सब कुछ अपने मजे के लिए करते हैं और अपनी भावनाओं के आगे विवश होने के कारण करते हैं। कुछ लोगों ने तो कुरआन और हदीस को अपने तंग नजरिये में बांध कर अर्थ का अनर्थ किया है। इससे मुसलमानों के खिलाफ नफरत की आग को भड़काते रहते हैं। उन में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस बात का दावा करते हैं कि उन्हें अल्लाह की ओर से असीम शक्ति प्राप्त हो गई है और दूसरे मुसलमानों को नीची निगाह से देखते हैं। कुछ दूसरे लोग, उनके जो प्रत्यक्ष दिव्य आदेश हैं (नस्स) उसका आंख मूंद कर पालन करते हैं और अपने दिमाग और सोच का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करते। उनको धर्म की अच्छी तरह व्याख्या कैसे की जाए इस सलाहियत से जान बूझ कर महरूम रखा गया है; उनकी न तो कोई आचरण संहिता है, न उनके अंदर नैतिक ताकत है और न आदर की भावना हैं उन लोगों ने बस यह काम किया है कि अनेकता को बढ़ावा दें और अहिंसा के आंदोलन को नुकसान पहुंचाएं।

इन दो समूहों के साथ एक तीसरा समूह भी बाद में शामिल हो गयाः यानि अराजकतावादी। करामाती जोश और खारजियों की बेचैनी ने कुछ मुसलमानों को आतंकवाद के जाल में फंसा दिया और वे लोग हर प्रकार की हिंसा पर उतर आए और हत्याएं करने लगे। उनका मकसद चाहे जो भी रहा हो, चाहे वह राष्ट्रीय हो या धार्मिक, कुछ नासमझ लोगों को गलत शक्तियों ने अपने हाथ का खिलौना बना लिया। उन लोगों ने अपने कार्य से यह साबित किया कि उनके अंदर इस्लाम की जरा भी खासियत बाकी नहीं रही और फिर भी इस्लाम के नाम पर ही वे दूसरों की हत्याएं करते रहे। उन लोगों ने उस तुरूप् के पत्ते को उन लोगों ने हवाले कर दिया जो लोग पहले से ही धर्म के खिलाफ खड़े थे।

अराजकतावादी, निर्दोष लोगों की हत्याएं करने वाले!

अराजकतावादियों ने कुछ तानाशाहों का मुसलमानों के खिलाफ हत्या और नस्लकुशी का जो अभियान चल रहा था उसका समर्थन दिया था। वे राज्य के खिलाफ एक विद्रोही के तौर पर सामने आए उन लोगों ने लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्ष प्रणाली को मानने से इंकार कर दिया। उसका परिणाम यह सामने आया कि राज्य इस प्रकार के तत्वों को सख्ती से कुचलने के लिए विवश हो गया। उसी बीच, अस्पष्ट शंकाओं को एक वास्तविक घटना के तौर पर समझा गया और बहुत से मासूम लोगों को उसका अंजाम भुगतान पड़ा क्योंकि यह कहा गया है कि संभावना है कि इस प्रकार के लोगों से खतरा पहूंचे। इस्लाम में सूसाइड बम्बरों के लिए कोई जगह नहीं है। इस्लाम ने अपनी पूरी तारीख में कभी ऐसा आदेश जारी नहीं किया जिसमें निर्दोष लोगों की हत्या करना शामिल हो। इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता। हालांकि कुछ लोगों के गलत कामों की वजह से, वे लोग जो करामतियों एवं खारजियों के जैसे थे, जिन्हें नशीले पदार्थ खिला कर अपने वश मे किया गाया था या दूसरे तरीकों से, बहुत से दूसरे लोगों को बदनाम किया गया और इस्लाम का जो मूल रूप था उसका धूमिल किया गया। मुसलमान जिन्हें अल्लाह का प्रतिनिधि कहा जाता है और अल्लाह की बंदगी करने के लिए जाना जाता है उसे एक आतंकवादी घोषित कर दिया गया।

इस विषय को गलत रूप देने में दो कारक जिम्मेदार मालूम होते हैं: पहला, तानाशाहों का गुस्सा, अवपीड़न और उनकी दृढ़ताः और दूसरा, कुछ नासमझ लोगों के उल्टे सीधे काम जो तानाशाहों के कामों को पुष्टता प्रदान करते हैं।

इस विषय को गलत रूप देने में दो कारक जिम्मेदार मालूम होते हैं: पहला, तानाशाहों का गुस्सा, अवपीड़न और उनकी दृढ़ताः और दूसरा, कुछ नासमझ लोगों के उल्टे सीधे काम जो तानाशाहों के कामों को पुष्टता प्रदान करते हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में सबसे अधिक नुकसान उन्हें हुआ जो मध्य में थे यानि जो शंका और झिझक का शिकार थे। वे देख रहे थे कि क्या हो रहा है उनके सामने, अपने सामने उन अराजकतावादियों, कुछ करामातियों और खारजियों को देख रहे थे, उन लोगों ने सोचा कि “उन्होंने बहुत गलत किया है और वे सजा के हक़दार हैं।” एक प्रकार से उन लोगों ने तानाशाहों के दबाव के जरिये शासन करने की नीति का समर्थन किया। यह ख्याल किया कि जो कुछ किया जा रहा है वह व्यवस्था को बचाने के लिए किया जा रहा है। इसके अलावा, जो लोग उस समय शासन का हिस्सा थे उन लोगों ने जान बूझ कर इसे नजरंदाज किया जो कुछ उनके सामने हो रहा था या फिर वे उसका असली मकसद समझने से वंचित थे। जो लोग मध्य में झिझक दिखा रहे थे वे अपनी ही शंका से ग्रस्त थे और एक प्रकार से उन लोगों ने सहनशीलता के वातावरण को बिगाड़ने में अपनी सहमति प्रकट की लोगों ने सहनशीलता के वातावरण को बिगाड़ने में अपनी सहमति प्रकट की और जो लोग शांति के अभिलाषी थे उनको पीछे धकेल दिया गया।

यह भी ध्यान देने योग्य बेहद महत्वपूर्ण बात है कि हमेशा किसी को नुकसान पहुचाया आसान होता है; और वह नुकसान प्रभावी हो सकता है भले ही उसका आकार और प्रकार छोटा हो और उसको केवल कुछ लोगों ने अंजाम दिया हो। तबाही आसान है। किसी भी बिकाऊ लेकर का सहारा लेकर आप किसी की भी निंदा करा सकते हैं और बदनाम करा सकते हैं। बहुत से लोग, और साथ ही बहुत सी संस्थाएं इस प्रकार बदनाम की जा चुकी हैं। उन लोगों ने तथाकथित प्रेस की आजादी के नाम पर बदनाम करने की पूरी साजिश रची है। हमेशा उन अभियानों को अदालत के सम्मुख आने के लिए विवश किया गया है और उसको फिर नकारा गया है और उसके बदले मुआवजे दिलवाए हैं। लेकिन इस प्रकार की कानूनी प्रक्रिया लंबे दिनों तक चलती रही है और उसका फैसला भी काफी दिनों बाद आया है। लेकिन जो बुरी अभिलाषाएं थीं उसे पूर्ण की गई हैं, और कुछ लोगों के दिमाग में दूषित बिंब ही बचे रह पाए हैं।

इन सभी शैतानियों के पीछे हमेशा एक छोटे से समूह का ही हाथ रहा है। वे जाति प्रथा में विश्वास करने वाले लोग थे जिसमें उन्होंने अपने देवी देवताओं के कान, नाक आंखों और मुंह की स्वयं रचना की, जहां बाकी लोगों को नाखुन के रूप में चित्रित किया गया और नेसिप फाजिल के शब्दों में, वे परित्यक्त लोग थे। अगर कुछ हो सकता था तो वह केवल उन ही लोगों के हाथों हो सकता था। अगर कोई उपलब्धि हासिल की गई तो निश्चित रूप से उसका सेहरा भी उन ही के सर जाता था। आखिर यह कैसे संभव हो सकता है कि धार्मिक लोगों को पहले याद किया जाए जब बात बातचीत एवं सहनशीलता की हो? यह संभय नहीं है, यह वे लोग हैं जो अपने कार्यों के लिए सराहे गए हैं, क्योंकि वे ही कान और आंख बनाते हैं, न कि वे लोग जिनकी हैसियत नाखुन जैसी है। आप उन्हें एक छोटा सा समूह कह सकते हैं या वह छोटा सा समूह जिस के हाथ में राज्य की बागडोर हो, उन लोगों ने जानबूझ कर शांति के वातावरण को अपने अहंकार के कारण खराब किया है और उन लोगों ने जो कुछ किया है वह तबाहकुन है।

बातचीत की प्रक्रिया को हमले का शिकार बनाना

अतीत में हमें करामातियों का उत्साह, खारजी विचार, और अराजकतावादी मनोदशा सब कुछ देखने को मिला है, और वे दुबारा फिर कभी सामने आ सकते हैं। जब तक ईमान वाले लोगों के पास यह मौका है कि वे अपनी बात करें, तो निस्संदेह कुछ लोग ऐसे होंगे जिन्हें इन सारी कोशिशों से तकलीफ पहुंचेगी। लेकिन शायद तब हमें उनसे यह सवाल पूछाना चाहिएः “ईमान वाले लोग कुछ निश्चित सिद्धांत पर अमल करते हैं और उनकी संख्या में लगातार वृद्धि हो निश्चित सिद्धांत पर अमल करते हैं और उनकी संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है क्योंकि उनका हर कोई ऐसा काम क्यों नहीं करते जिससे आपकी संख्या में भी वृद्धि हो? आपको समाज पसंद नहीं करता। आपको उस स्तर तक पहुंचना होगा जब आपकी गणना की जाए, आप विश्वास को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध हों, और आप सबके प्रिय बन जाएं ताकि हर कोई आपका स्वागत करे।”

मेरी ख्वाहिश थी कि मैं इन तीन दुष्ट समूह के लोगों का जिक्र न करूं, खासतौर पर जब हम पवित्र महीना रमजान की बरकतों का अनुभव कर रहे हों। शैतान के जिक्र से ही रहमत के नाजिल होने का रास्ता रोक देते हैं, इसलिए इन शैतानों के बारे में जिक्र करने से हो सकता है कि इन दिनों हम पर अल्लाह की रहमतें कम नाजिल हो रही हों। अगर हम चाहते हैं कि अल्लाह की रहमतों से कभी महरूम न हों तो हमें हमेशा नेक लोगों की चर्चा करनी चाहिए और अच्छा काम करना चाहिए। मैं अभी हाल के दिनों में रोजा इफ्तार के लिए दी गई दावत से बहुत प्रभावित हुआ हूं जिसमें बहुत से लोगों को आमंत्रित किया गया था जो भिन्न विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाल, मगर वे शांति के अभिलाषी थे और एक दूसरे का हाथ थामे अपनी एकता का प्रदर्शन कर रहे थे। काश कि अतीत में भी ऐसी किसी प्रकार की कोशिश को नुकसान न पहुंचाया गया होता और बजाए इसके कि लोगों के साथ शत्रुता का व्यवहार करते उनके साथ अच्छी भावना से पेश आते। काश कि वे लोग उन लोगों का स्वागत करते जो शांति का अग्रदूत बन कर उनके पास आए थे।

हर इंसान अपनी असली प्रकृति को जाहिर कर ही देता है। हम भी ऐसा करते रहेंगे। हमारा रास्ता वह है जिसमें हम अल्लाह पर विश्वास के साथ आगे बढ़े हैं और हम उसी बुनियाद पर सकारात्मक कार्य करते हैं। हमारा दायित्व बनता है कि हम दूसरों को प्यार मुहब्बत का पैगाम दें जैसा कि अगर सहाबा-एकराम को ऐसा मामला पेश आता तो करते और इस प्रकार से अपने मजबूत ईमान का मुजाहिरा करें और दूसरों का भी ईमान लाने की दावत दें और इसे उनके लिए आसान बनाएं; और इसकी चिंता न करें कि दूसरे लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं।

5.4 इस्लाम के आगमन के बाद सहाबा-एकराम का नैतिक रूप से कायापलट हुआ उसको आप किस प्रकार वर्णित करेंगे?

पैग़म्बर मुहम्मद उस समय में जीवन गुजार रहे थे जब अच्छे आचरण की बात लोग काफी पहले भूल गए थे और उसक स्थान पर बच्चियों को गर्भ में मार दिया जाता था। उनके अच्छे आचरण का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते थे कि वे किस प्रकार आपस में एक दूसरे से बातें किया करते थे। इतिहास के उस युग में बच्चा अपने पिता को नाम लेकर बुलाता था; जैसे उमर, अबू बकर और मां को जैसे उम्मे सलामा। एक बार एक बद्दू अल्लाह के रसूल के पास आया और उसने एक के बाद कई सवाल पूछ कि एक मोमिन की क्या क्या जिम्मेदारियां होती हैं? उसके बाद उसने अपनी सहमति प्रकट करते हुए कहा, “अल्लाह की कसम जिसने आपको नबी बना कर भेजा है, न तो मैं उससे बढ़ कर या कम कोई काम करूंगा जैसा कि आपने मुझे करने के लिए बताया है।” धुल खुवैसिरा, जब युद्ध से प्राप्त धन का बटवारा किया जा रहा था तो पैग़म्बर मुहम्मद के पास आया और कहा, “या मुहम्मद, इंसाफ से काम लीजिए।” उसने इस प्रकार की अभद्रता का व्यवहार अल्लाह के पैग़म्बर के साथ किया जो कि अल्लाह के संरक्षण में अपना सारा काम अंजाम दिया करते थे। लेकिन उसकी अभद्रता को बड़ी शालीनता से लिया केवल इस कारण से कि वह लोगों की इस मामले में मदद करना चाहते थे कि वह अल्लाह की रहमत और खुशी के हकदार कैसे बने और उनकी निजात कैसे हो।

ऐसे ही लोगों के बीच से सहाबा-एकराम का उदय हुआ जो कुरआन के एक आश्चर्य की तरह हैं और जिन्हें नैतिकता की राह कदम व कदम सिखाई गई। निम्नलिखित आयत पर विचा कीजिएः

ऐ लोगों! जो ईमान लाए हो। तुम लोग अपने को अल्लाह और उसके पैग़म्बर के सामने आगे-आगे पेश मत करो; बल्कि अल्लाह से डरते रहो जो हर चीज का जानने वाला और सुनने वाला है। ऐ लोगों जो ईमान लाए हो। अपनी आवाज को पैग़म्बर की आवाज से ऊपर मत करो और न बातचीत करते वक्त ऊंची आवाज में उनसे बात करो, जैसा कि तुम कि दूसरे से बात करने में करते हों, कहीं ऐसा न हो जाए कि तुम्हारा अमल बर्बाद हो जाए और तुम्हें उसकी खबर भी न हो। (हुजरात 49:1-2)

पहली आयत में जिस वाक्यांश का इस्तेमाल हुआ हैः “तुम अपने को अल्लाह और उसके पैग़म्बर के आगे आगे मत रखो।” इसका मतलब यह हुआ कि जब कोई सवाल पूछा जाए या पैग़म्बर की मौजूदगी में कोई समस्या आ जाए, तो अपने आप ही फैसले न करने लगो या फिर उस पर बाद में अल्लाह अपनी राय अपने नबी से जाहिर करे; उनके कदमों पर चलना मानों अल्लाह अपनी राय अपने नबी से जाहिर करे; उनके कदमों पर चलना मानों अल्लाह के बताए नियमों का पालन करना है। न ही पैग़म्बर को यह समझाने की कोशिश करो कि वह किस प्रकार तुम्हारे सवालों का जवाब देंगे। इस प्रकार पैग़म्बर के साथ उन्नत व्यवहार का मुजाहिरा करने का मतलब है कि अल्लाह के साथ तुमने अच्छे आचरण का प्रदर्शन किया। क्योंकि पैग़म्बर ही तुम्हें कुरआन की शिक्षाओं के द्वारा मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाते हैं।

दूसरी आयत में यह बात कही गई हैः “पैग़म्बर की आवाज से अपनी आवाज ऊंची मत करो।” जब यह आयत नाजिल हुई तो साबित इब्ने कैस इब्ने शम्स अपने घर गए और रोने लगे कि वह तो जहन्नम के हकदार होंगे। पैग़म्बर मुहम्मद ने उनके पड़ोसी साद इब्ने मआज से उनके बारे में पूछा कि उसका क्या हाल है। तो वह उनके पास गए ताकि उनकी हाल खबर ले सकें। तो साबित ने जवाब दिया, “जब मैंने यह आयत सुनी तो मुझे यकीन सकें। तो साबित ने जवाब दिया, “जब मैंने यह आयत सुनी तो मुझे यकीन हो गया कि मेरा ठिकाना जहन्नम होगा क्योंकि मेरी आवाज तो सबसे ऊंची है। “साद ने उस घटना को पैग़म्बर से आ कर बयान किया तो पैग़म्बर ने उन्हें बुलाया और कहा कि तुम वाकई जन्नत में जाओगे। हजरत साबित की आवाज कुदरती तौर पर ऊंची थी इसलिए पैग़म्बर मुहम्मद ने उनसे कहा कि चूंकि यह तुम्हारी आवाज ही कुदरती तौर पर ऐसी है इसलिए तुम पर कोई गुनाह नहीं। इस आयत में उन लोगों को संबोधित करके बताया गया जो जान बूझ कर अभद्रता का प्रदर्शन करते हुए पैग़म्बर से ऊंची आवाज में बात करते हैं।

सहाबा-एकराम की पूरी तालीम हदीस और कुरआन के मुताबिक हुई थी इसलिए उनका आचरण उत्तम दर्जे का था। वह बाद की नस्लों के लिए भी एक उदाहरण बन गए। उस आयत के नाजिल होने के बाद किसी ने फिर पैग़म्बर से ऊंची आवाज में बात करने की हिम्मत नहीं की और अपने आचरण को हमेशा संयमित रखा। हर कोई इस बात का खयाल रखता था कि उनसे संक्षिप्त और सारगर्भित बात करे। क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनकी ओर से किया गया कोई भी अशालीन व्यवहार उनके सारे अमल को बर्बाद कर के रख देगा। उनकी शालीनता बढ़ कर एक समय में ऐसी हो गई कि जब उनके हाथों पर कोई चिड़ियां भी आकर बैठ जाती तो वह अपना हाथ हिलाने से परहेज करते थे ताकि उस नन्ही सी जान को उनसे कोई तकलीफ न पहुंचे। उन लोगों ने हमारे सामने इस बात की मिसाल पेश कि हम पैग़म्बर मुहम्मद स. की बताई एक भी बात को जाया न होने दें बल्कि उस पर दढ़ता से पालन करें।